न रणनीति और न संघ!

लाख टके का सवाल है कि चार विधानसभा चुनावों में भाजपा किस रणनीति से चुनाव लड़ रही है? अपना मानना है भाजपा बिना रणनीति के चुनाव लड़ रही है और लड़ेगी। जबकि सन् 2014 से 2024 तक नरेंद्र मोदी ने हर चुनाव अपनी रणनीति में लड़ा। क्या था उस रणनीति में? सर्वप्रथम मोदी का चेहरा। दूसरे नंबर पर हिंदू बनाम मुसलमान के फर्जी नैरेटिव में हिंदुओं में गौरव का, अहंकार का भभका बनाना। तीसरे, भाजपा व संघ की पुरानी साख के उम्मीदवारों का मैदान में होना। चौथा, जातिगत हिसाब में फॉरवर्ड और ओबीसी राजनीति का संतुलन बना उसे दूहना। पांचवां कारण मीडिया और नैरेटिव पर शत प्रतिशत कब्जा था। छठा कारण संसाधनों व खर्च के मामले में भाजपा की वर्चस्वता का है। और आखिरी कारण संघ तथा उसके संगठनों का चुनाव जीतने के लिए करो या मरो के अंदाज में अपने आपको झोंकना था।

उस रणनीति के तमाम तत्व अब हवा हवाई और बेमतलब हैं। सोचें, मौजूदा चुनावों के चारों राज्यों की हकीकत पर। नरेंद्र मोदी अब शहरी मध्यवर्ग परिवारों में भी बासी, उबाऊ तथा उस घिसे पीटे रिकॉर्ड की तरह हैं, जिसकी आवाज घिस कर फट गई है। इसे समझने के लिए याद करें अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे को। उन्हें लोगों ने दशकों सुना। और हर बार उन्हें देखते, सुनते मजा आता था, फिर भले श्रोता भक्त हो, पार्टी वफादार हो या विरोधी। ठीक विपरीत मोदी का चेहरा, उनके भाषण अब जहां विरोधियों के लिए नफरत का बिंदु है वही भक्तों के लिए बोरियत भरा है तो पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए चिढ़ व निराशाजनक है। और तटस्थ लोगों के लिए निरर्थक है। सभी जान गए हैं कि सिर्फ बातें हैं और अनुभव व जमीनी सच्चाई में कही कुछ नहीं है।

क्या मैं गलत हूं? नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपने अहंकार में कभी नहीं मानेंगे लेकिन सच्चाई है कि इन्होंने अपनी राजनीति की भ्रष्टताओं में चाल, चेहरे, चरित्र को ऐसा विकृत और खौफनाक बनाया है कि सबसे ज्यादा भाजपा और संघ में ही अब दोनों को ले कर मन ही मन कुढ़न हैं, गुस्सा है। जेपी नड्डा ने लोकसभा चुनाव में जब कहा कि भाजपा को अब संघ की जरुरत नहीं है तो उनका वह बयान हकीकत में था। कोई माने या न माने लेकिन नरेंद्र मोदी, अमित शाह और संघ की ओर से काम कर रहे बीएल संतोष तीनों अपनी अपनी सर्वे टीमों से उम्मीदवारों की छंटनी करते हैं। मतलब भाजपा सगंठन के जिला, प्रदेश, राष्ट्रीय पदाधिकारियों से बात, उनकी फीडबैक, संघ और उसके संगठनों के प्रस्तावित नामों से मोदी, शाह चुनाव के उम्मीदवार तय नही करते हैं, बल्कि सर्वे की लिस्ट में मिलान या अपनी निज पसंद से जीतने की कसौटी के हवाले उम्मीदवार खड़े करते हैं। फिर भले वह दूसरी पार्टी से आया हो या चाल, चेहरे, चरित्र में अनफिट हो वह बिना जनाधार के हो। ऐसा करना मोदी, शाह के लिए लोकसभा चुनाव तक इसलिए संभव रहा क्योंकि वोट मोदी के चेहरे पर पड़ रहा था। मोदी जीता रहे थे तो वे खंभे को भी खड़ा कर दें तो भाजपा, संघ सबके सिर आंखों पर।

वह स्थिति अब बदल गई है लेकिन भाजपा की बुनियाद और इमारत अहंकार से तहस नहस है। तभी गौर करें नरेंद्र मोदी ने कश्मीर घाटी के लिए किसे भेजा? उन राम माधव को, जिनका नाम सुन अमित शाह और संघ मन ही मन भन्नाए होंगे। इससे बड़ा सवाल है कि मोदी, शाह के बाद पार्टी में आज नंबर तीन मुखर चेहरा कौन सा है? असम के हिमंत बिस्व सरमा का। वे झाऱखंड में चुनाव के कर्ताधर्ता हैं। हिंदू बनाम मुस्लिम का राष्ट्रीय नैरेटिव बनवा रहे हैं और अमित शाह की तरफ से योगी आदित्यनाथ का विकल्प बनने के रास्ते में हैं। ऐसे ही जम्मू में अभी उम्मीदवारों की लिस्ट में खांटी पुराने, जनाधार वाले नेताओं के टिकट कटे हैं और दलबदलुओं को अहमियत है। इसलिए तय मानें जेपी नड्‍डा की जगह पार्टी के दूसरा अध्यक्ष बनने की टालमटूल है तो वजह पहले निजी वफादारों को प्रदेशों में अध्यक्ष चुनवाना है ताकि पार्टी के अखिल भारतीय अध्यक्ष में जेपी नड्डा जैसा ही निराकार चेहरा चुना जाए या गड़बड़ भी हो तो प्रदेश के अध्यक्ष मोदी, शाह से ही डिक्टेट रहें। जाहिर है मोहन भागवत एंड पार्टी को आगे भी ताकते रहना हैं तथा हिमंत बिस्व जैसे नए चाणक्यों के मार्गदर्शन से संघ का मार्गदर्शन हुआ करेगा।

विषयांतर हो गया है। असल बात मोदी के चेहरे के पर्दे में रहने से चुनावी रणनीति का कोर खत्म है और मूल पार्टी, मूल भाजपाई नेताओं तथा संघ परिवार की बेगानी हैसियत से इन विधानसभा चुनावों में बहुत कुछ नया होगा। ये चुनाव मोदी, शाह की मजबूरी के नए पैंतरों, नई रणनीति में होते हुए हैं।

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