वोटर नाम काटने का अभियान उलटा न पड़े !

अगर चुनाव आयोग, बिहार सरकार, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यू की मानें तो बिहार की जनता बेहद उत्साह और उमंग के साथ मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण अभियान में शामिल हो रही है। लोग एक उत्सव की तरह इसका जश्न मना रहे हैं। ढोल नगाड़े बजाते हुए, नाचते, गाते, नए कपड़े पहन कर मतगणना प्रपत्र भरने जा रहे हैं, बूथ लेवल अधिकारियों का खुले दिल से स्वागत कर रहे हैं और रंगारंग तस्वीरें खिंचवा कर चुनाव आयोग के अधिकारियों के पास जमा कर रहे हैं, बिहार के लोग अपनी किस्मत को धन्य मान रहे हैं कि उनको यह मौका मिला कि वे अपनी नागरिकता प्रमाणित करें और इसके लिए चुनाव आयोग का हृदय से आभार जता रहे हैं।

चुनाव आयोग के मुताबिक बिहार के लोगों में उसके इस अभियान को लेकर ऐसा उत्साह है कि सात दिन के अंदर आठ करोड़ लोगों को प्रपत्र हासिल हो गया और उनमें से आधे से ज्यादा ने उसे भर कर संपूर्ण या आधे अधूरे दस्तावेजों के साथ बूथ लेवल अधिकारियों के पास जमा भी करा दिया। चुनाव आयोग को अफसोस हो रहा होगा कि उसने क्यों एक महीने का समय तय किया? बिहार के उत्साहित नागरिक तो आगे बढ़ कर 15 दिन में ही यह प्रक्रिया पूरी करा देंगे!

लेकिन असलियत यह नहीं है। असलियत यह है कि बिहार के करोड़ों नागरिक हैरान परेशान घूम रहे हैं। उनको समझ में नहीं आ रहा है कि बैठे बिठाए यह बला उनके सर क्यों आई? बिहार में जन्म लेने के अलावा उन्होंने क्या कसूर किया था कि उनको इस प्रयोग के लिए चुना गया? वे प्रयोगशाला के चूहे की तरह महसूस कर रहे हैं कि पश्चिम बंगाल और असम में आजमाए जाने वाले दांव के प्रयोग के लिए उनको चुना गया। चुनाव आयोग के दावे के उलट करोड़ों लोग मतगणना प्रपत्र मिलने के इंतजार में हैं। करोड़ों लोग यहां वहां भागदौड़ कर रहे हैं कि चुनाव आयोग की ओर से मांगे गए दस्तावेज कैसे जुटाएं। लाखों लोग खेतीबाड़ी के इस सीजन में या बाढ़ और बरसात के मौसम में गले पड़े इस काम को कोस रहे हैं।

बिहार से बाहर रहने वाले लाखों प्रवासी इस चिंता में हैं कि वे कैसे मतगणना प्रपत्र भरें और दस्तावेजों का इंतजाम कहां से करें। हजारों, लाखों नौजवान हैरान हैं कि कुछ दिन पहले तो उन्होंने मतदाता बनने के लिए आवेदन किया था और चुनाव आयोग ने उनका मतदाता पहचान पत्र जारी किया था फिर क्यों अचानक नए सिरे से मतदाता बनने को कहा जा रहा है? यह वास्तविकता है कि लोकसभा चुनाव के बाद चुनाव आयोग का स्पेशल समरी रिवीजन चल रहा था और 18 साल की उम्र पूरी करने वाले नौजवान या दूसरे लोग भी मतदाता बन रहे थे। आधार कार्ड के सहारे उनका मतदाता पहचान पत्र बन रहा था। जून तक चुनाव आयोग ने यह काम किया लेकिन उसके बाद अचानक गहन पुनरीक्षण अभियान शुरू कर दिया।

बिहार की असलियत यह है कि कोई भी चुनाव आयोग के इस अभियान से खुश नहीं है और न मर्जी से इसमें शामिल होना चाहता है। सब मजबूरी में गले पड़ा ढोल बजाने की कोशिश में लगे हैं और मन की मन इसका बदला निकालने की योजना भी बना रहे हैं। तभी मास्टरस्ट्रोक किस्म का यह दांव उलटा भी पड़ सकता है। कहीं ऐसा न हो जाए कि चौबे जी छब्बेजी बनने के चक्कर में दुबेजी बन कर रह जाएं। चुनाव आयोग के इस अभियान का घोषित लक्ष्य स्वंय मुख्य चुनाव आय़ुक्त ज्ञानेश कुमार ने बताया है, ‘शुद्ध मतदाता सूची लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए अनिवार्य है’। सवाल है कि क्या बिहार की मतदाता सूची अशुद्ध है? और अगर अशुद्ध है तो उसी के आधार पर पिछले साल लोकसभा चुनाव कैसे व क्यों हुआ? जाहिर है कि असली मकसद घोषित मकसद से अलग है। महाराष्ट्र में पांच महीने में 41 लाख वोटर जोड़ कर जो लक्ष्य हासिल किया गया था वही लक्ष्य एक महीने में लाखों लोगों के नाम काट कर बिहार में हासिल करने का है।

लेकिन दोनों में बुनियादी फर्क है। महाराष्ट्र में नाम जोड़े जाने या नाम जोड़ने की प्रक्रिया से किसी को तकलीफ नहीं थी। लेकिन बिहार में नाम काटे जाने और नाम काटने की कष्टसाध्य प्रक्रिया से लाखों, करोड़ों लोगों को तकलीफ है। विपक्षी पार्टियों राजद और कांग्रेस को चिंता इस बात की है कि उनके समर्थकों के नाम कट सकते हैं। बांग्लादेशी या रोहिंग्या घुसपैठिया होने के नाम पर अल्पसंख्यकों के नाम कट सकते हैं। लेकिन नाम सिर्फ अल्पसंख्यकों के ही नहीं कटेंगे। अल्पसंख्यकों के साथ साथ बड़ी संख्या में दलित, अति पिछड़ी और पिछड़ी जातियों के नागरिकों के पास भी नागरिकता प्रमाणित करने वाले दस्तावेज नहीं हैं। प्रवासी बिहारियों की अलग समस्या हैं। उनके सामने प्रपत्र भरने और दस्तावेज जुटाने दोनों की व्यावहारिक समस्या है। उनके भी नाम कटेंगे और अगर नहीं कटे तब भी एक तलवार उनके सिर पर लटकी रहेगी। वे इस चिंता में रहेंगे कि उनके पास नागरिकता प्रमाणित करने वाला दस्तावेज नहीं है।

पता नहीं भाजपा और जनता दल यू के नेता यह समझ पा रहे हैं या नहीं कि चुनाव आयोग के इस अभियान से दलितों, पिछड़ों, गरीबों और वंचितों में यह संदेश जा रहा है कि उनको सिर्फ मतदान से वंचित करने की नहीं, बल्कि उनको मिलने वाले सामाजिक सुरक्षा के लाभों से भी वंचित करने की साजिश हो रही है। ध्यान रहे पांच किलो अनाज हो या किसान सम्मान निधि हो या आय़ुष्मान भारत योजना के तहत मुफ्त इलाज की सुविधा हो यह राशन कार्ड या आधार कार्ड के जरिए मिल रहा है। लेकिन इन दोनों दस्तावेजों को चुनाव आयोग नहीं स्वीकार कर रहा है। तभी जिन लोगों के पास सिर्फ आधार कार्ड, मनरेगा कार्ड और राशन कार्ड है उनको यह आशंका सताने लगी है कि उनके सारे लाभ छीने जा सकते हैं।

हो सकता है सबके साथ ऐसा नहीं हो। हो सकता है कि आधे अधूरे दस्तावेजों के बावजूद उनका नाम मतदाता सूची में शामिल रहे और नहीं कटे। लेकिन उनके मन में आशंका बनी रहेगी और उनके सर पर तलवार लटकी रहेगी। याद करें लोकसभा चुनाव के समय क्या हुआ था? भाजपा कोई सचमुच संविधान बदलने नहीं जा रही थी और न आरक्षण छीनने जा रही थी। लेकिन चार सौ सीट आई तो संविधान बदल कर आरक्षण छीन लेंगे की ऐसी हवा बनी कि भाजपा का भट्ठा बैठ गया। उसको 63 लोकसभा सीटों का नुकसान हुआ।

जैसे लोकसभा चुनाव के समय संविधान बदलने और आरक्षण छीनने की आशंका फैली थी वैसी ही आशंका इस बार नागरिकता छीनने, मतदाता सूची से नाम काटने और राशन सहित सभी तरह के लाभों से वंचित कर दिए जाने की आशंका पैदा हुई है। मतदाता सूची से नाम कटने का नुकसान सिर्फ यह नहीं है कि कोई वोट नहीं दे पाएगा। ज्यादातर घरों के कुछ न कुछ सदस्य बिहार से बाहर हैं लेकिन जो लोग घर पर हैं उनको सभी सदस्यों के नाम पर राशन मिलता है और दूसरे लाभ मिलते हैं। अगर बाहर रहने वालों या दस्तावेज नहीं जुटा पाने वालों के नाम कट गए तो उनके नाम पर मिलने वाला लाभ भी बंद हो जाने का खतरा है।

इससे आम गरीब, पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यकों के साथ साथ सामान्य वर्ग के लोग भी आशंकित हैं। साथ ही एक बड़ा स्वार्थ समूह, जो इन योजनाओं से लाभान्वित होता है, जिनमें कई किस्म के दलाल, राशन दुकानदार, राशन का अनाज खरीदने वाले कारोबारी, अस्पतालों के मालिक, बीमा कंपनियों के लोग हैं वे भी आशंकित हैं। चुनाव आयोग ने अगर 10 फीसदी लोगों के भी नाम काटे तो इनका बड़ा नुकसान होगा। सो, अगर परेशान, आशंकित और नाराज लोगों का बड़ा समूह चुपचाप बदला लेने के लिए वोट करे तो बिहार में एनडीए के लिए यह दांव उलटा पड़ जाएगा।

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