एक साथ चुनाव से पहले सुधार जरूरी

पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की योजना पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी कमेटी अपनी रिपोर्ट तैयार कर रही है और कहा जा रहा है कि जल्दी ही इसकी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी जाएगी। इसकी मसौदा रिपोर्ट को लेकर मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उसके मुताबिक कमेटी ‘एक देश, एक चुनाव’ के नाम से संविधान में एक खंड जोड़ने की सिफारिश कर सकती है, जिसमें इस योजना से जुड़े सारे नियम और कानून शामिल होंगे।

बताया जा रहा है कि कोविंद कमेटी एक कॉमन मतदाता सूची के साथ सारे चुनाव एक साथ कराने की योजना पेश करेगी। इस योजना पर उठाए जा रहे सबसे गंभीर सवाल का जवाब देते हुए कहा गया है कि अगर पांच साल के कार्यकाल के बीच कोई सरकार बहुमत गंवा देती है तो समय से पहले चुनाव कराने की बजाय यूनिटी सरकार बनाई जाएगी और चुनाव समय पर ही होगा। यानी किसी हाल में विधानसभा या लोकसभा भंग नहीं होगी और एक साथ चुनाव का चक्र नहीं बिगड़ने दिया जाएगा।

ध्यान रहे पहले इस तरह के किसी कानूनी प्रावधान के बगैर ही पूरे देश में एक साथ चुनाव होते थे। लेकिन एक बार यह चक्र टूट गया तो टूटता गया क्योंकि यूनिटी सरकार बनाने जैसी किसी योजना के बारे में नहीं सोचा गया। इसमें कोई संदेह नही है कि इस तरह की कोई भी योजना लोकतंत्र के बहुत बुनियादी सिद्धांतों को चोट पहुंचाएगी।

इससे दलबदल को बढ़ावा मिलेगा और खरीद फरोख्त की घटनाओं में और बढ़ोतरी होगी। अभी अलग अलग चुनाव होने पर नागरिकों के पास मौका होता है कि अगर वह केंद्र की सरकार से नाराज है तो सत्तारुढ़ दल को किसी राज्य के चुनाव में सबक सीखा दे।

लेकिन सारे चुनाव एक साथ होने और पांच साल में एक ही बार चुनाव होने से जनता के हाथ से वह मौका निकल जाएगा। लोकतंत्र का मतलब वास्तविक अर्थों में पांच साल पर एक बार वोट देना भर रह जाएगा। इसी तरह भारत जैसे विविधता वाले देश में चुनाव का राष्ट्रीय और केंद्रीकृत मुद्दा होगा, जिससे संघवाद और विविधता दोनों की धारणा प्रभावित होगी। इसलिए एक साथ चुनाव के साथ कई सैद्धांतिक व बुनियादी समस्याएं हैं, जिन पर कई बार चर्चा हुई है।

हैरानी की बात है कि केंद्र सरकार और चुनाव आयोग एक यूटोपियन विचार पर इतना समय और ऊर्जा खर्च कर रहे हैं लेकिन चुनाव के जरूरी सुधारों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। एक साथ चुनाव कराने की जिद पूरी करने से पहले जरूरी है कि चुनाव सुधार किए जाएं। चुनाव की प्रक्रिया को ज्यादा पारदर्शी, स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने के उपाय किए जाएं। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदे के कानून को असंवैधानिक बता कर खारिज कर दिया और उस पर रोक लगा दी।

इसके बाद चुनाव आयोग ने कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन करेगा। लेकिन उसने यह नहीं बताया कि राजनीतिक या चुनावी चंदे की क्या वैकल्पिक व्यवस्था होगी? लोकसभा के चुनाव होने हैं और कई राज्यों में विधानसभा के भी चुनाव होने वाले हैं। उनसे पहले चंदे की क्या एक वही व्यवस्था चलेगी, जिसमें पार्टियों को 20 हजार रुपए से कम का चंदा नकद मिलता है और चंदा देने वाले का नाम बताने या जानने की जरुरत नहीं होती है?

गौरतलब है कि भारत में इस तरीके से ही सबसे ज्यादा चंदा दिया जाता है। पार्टियां जो बैलेंस शीट पेश करती हैं या चंदे का हिसाब देती हैं उसमें बताती हैं कि उनको मिले चंदे का ज्यादा बड़ा हिस्सा अघोषित स्रोत से मिला है। बहुजन समाज पार्टी तो कई बरसों से यही बता रही है कि इस अघोषित स्रोत के अलावा उसको किसी और स्रोत से कोई चंदा नहीं मिला है। क्या चुनाव आयोग को नहीं पता है कि अघोषित स्रोत से जो चंदा मिलने की बात उसे बताई जाती है उसका बड़ा हिस्सा काले धन का होता है? फिर क्यों चुनाव आयोग इसे रोकने या ठीक करने का उपाय नहीं कर रहा है?

कितने बरसों से राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी फंडिंग की बात चल रही है लेकिन वह भी कोई फुलप्रूफ योजना नहीं है। उससे किसी पार्टी के अतिरिक्त खर्च करने पर रोक नहीं लगेगी। सबको पता है कि पार्टियां चुनाव आयोग की ओर से तय की गई सीमा से कई गुना ज्यादा खर्च करती हैं। लेकिन उसे रोकने का कोई उपाय नहीं है। इसका नतीजा यह है कि जिन पार्टियों के पास ज्यादा पैसे हैं वो किसी न किसी तरीके से ज्यादा खर्च करते हैं और इससे चुनाव का मैदान सबके लिए बराबरी का नहीं रह जाता है।

इसी तरह चुनाव आयोग कितने बरसों से आपराधिक छवि वाले नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने की कोशिश कर रहा है लेकिन उसमे भी कामयाबी नहीं मिल है। नब्बे के दशक में बड़ी संख्या में बाहुबली किस्म के नेताओं का राजनीति में पदार्पण हुआ, जो अब मुख्यधारा के बड़े नेता बन चुके हैं। उनके बताए रास्ते पर सैकड़ों दागी नेता राजनीति में सक्रिय हैं। अपने धनबल और बाहुबल के दम पर वे अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले ज्यादा ताकतवर साबित होते हैं।

चुनाव जब से बड़ी पूंजी का खेल बन है, तब से बड़ी संख्या में करोड़पति और अरबपति इस खेल में उतरे हैं। उन सबका अपना स्वार्थ होता है और ज्यादातर के खिलाफ आर्थिक अपराध के मामले भी होते हैं। चंदे के साथ साथ चुनाव आयोग को दागी नेताओं को रोकने के उपायों पर भी गंभीरता से काम करने की जरुरत है।

चुनाव की निष्पक्षता और स्वतंत्रता पिछले कुछ समय से सवालों के घेरे में है। विपक्षी पार्टियों ने इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं। लेकिन ईवीएम के मामले में चुनाव आयोग और सरकार दोनों इतने संवेदनशील हैं कि उसके बारे में कुछ भी निगेटिव सुनने को राजी नहीं हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि ईवीएम मौजूदा सरकार का ब्रेन चाइल्ड है, जिसकी वजह से वह इतनी सेंसिटिव है, इसकी शुरुआत कांग्रेस के राज में हुई थी।

इसके बावजूद सरकार इसके बारे में कोई शिकायत नहीं सुनना चाहती है। ईवीएम के प्रति भरोसा कायम करने के लिए विपक्षी पार्टियों ने चुनाव आयोग को यह सुझाव भी दिया है कि वह सौ फीसदी वीवीपैट मशीनों की पर्चियों की गिनती की व्यवस्था करे। गौरतलब है कि अभी हर विधानसभा में किसी पांच बूथ पर वीवीपैट की पर्चियों की गिनती होती है और ईवीएम के साथ उसका मिलान किया जाता है।

विपक्ष चाहता है कि ईवीएम के साथ लगी वीवीपैट मशीन की पर्चियां मतदाता के हाथ में दी जाए, जिसे देख कर तसल्ली करने के बाद मतदाता उसे निर्धारित बॉक्स में डाले और उसे भी ईवीएम की तरह ही सील किया जाए। कहा जा रहा है कि अगर सारी पर्चियां गिनी जाएंगी तो उसमें बहुत समय लगेगा। यह कोई बहुत मजबूत तर्क नहीं है। बहुत समय का मतलब कई महीने नहीं है।

इसमें तीन से चार दिन का समय लग सकता है। चुनावी प्रक्रिया की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने और विपक्षी पार्टियों के साथ साथ मतदाताओं के एक बड़े समूह का भरोसा बनाने के लिए इतना समय कोई ज्यादा समय नहीं है। ध्यान रहे चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया दो से ढाई महीने में यानी 60 से 75 दिन में पूरी करता है।

कई राज्यों में देखा गया है कि वोट डालने के बाद एक-एक महीने से ज्यादा समय तक लोग नतीजे का इंतजार करते रहते हैं। ऐसे में तीन दिन अतिरिक्त लगा देने से कोई आफत नहीं आ जाएगी। बहरहाल, 2029 में सारे चुनाव एक साथ कराने की बात कही जा रही है। अगर उससे पहले चुनाव आयोग जरूरी सुधार कराए तो बेहतर होगा।

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