संवैधानिक मान्यता से अब तक वंचित भाषाएं

अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस, 21 फरवरी पर विशेष

प्रत्येक मातृभाषा का सम्मान होना चाहिए, यही सह अस्तित्व का सिद्धांत है। भारत की परंपरा इस मामले में बड़ी समृद्ध व उदार रही है। भारत एक ऐसा देश है, जहां अनेक भाषाएं बोली जाती हैं। 2024 में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का थीम है, ‘बहुभाषी शिक्षा-सीखने और अंतर-पीढ़ीगत शिक्षा का एक स्तंभ’ है। संयुक्त राष्ट्र संघ का मानना है कि समावेशी शिक्षा और स्वदेशी भाषाओं के संरक्षण के लिए बहुभाषी शिक्षा महत्वपूर्ण है। संयुक्त राष्ट्र का यह भी कहना है कि हर दो सप्ताह में एक भाषा लुप्त हो जाती है। अगर ऐसा ही रहा तो दुनिया पूरी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत खो देती है। यूनेस्को ने भाषायी विरासत के संरक्षण हेतु मातृभाषा आधारित शिक्षा के महत्त्व पर जोर दिया है। उसने सांस्कृतिक विविधता की रक्षा के लिए स्वदेशी भाषाओं का अंतरराष्ट्रीय दशक भी शुरू किया है।

संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 और वर्ष 2032 के मध्य की अवधि को स्वदेशी भाषाओं के अंतरराष्ट्रीय दशक के रूप में नामित किया है। वहीं 16 मई, 2007 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने प्रस्ताव में सदस्य देशों से दुनिया के लोगों द्वारा बोली जाने वाली सभी भाषाओं के संरक्षण और इन भाषाओं को बढ़ावा देने का आह्वान किया था। बावजूद इसके आज भारत की एक बड़ी आबादी अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाने, रोजगार व पुरस्कार-सम्मान के अवसर से वंचित है।

यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की शुरुआत कैसे हुई। 21 फरवरी, 1952 को पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला को लेकर आंदोलन चल रहा था। बर्बर पुलिस ने आंदोलनकारी छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर गोलियां चला दीं, रफीक, सलाम, अब्दुल जब्बार, शफीउल, बरकत सहित कई युवा शहीद हो गए। तब से इस दिन को शहीद दिवस के रूप में जाना जाता है। इसी शहीद दिवस की याद में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की शुरुआत हुई। संयुक्त राष्ट्र के 65वें सत्र में बांग्लादेश ने हर वर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने का प्रस्ताव लाया, जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया।

भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने राष्ट्रीय ई-पुस्तकालय की जैसी पहल की है। इसमें अंग्रेजी सहित आठवीं अनुसूची में शामिल सभी 22 भाषाओं में फिक्शन, नॉन फिक्शन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहित अनेक विषयों पर किताबों के पीडीएफ फॉर्मेट में ई-संस्करण, ऑडियो बुक्स उपलब्ध हैं। पर, आठवीं अनुसूची से शामिल होने से वंचित भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी जैसी भाषाओं में लोग राष्ट्रीय ई-पुस्तकालय का लाभ लेने से वंचित हैं। भाषायी आधार पर यह भेदभाव ठीक नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़े बताते हैं कि वैश्विक स्तर पर, लगभग 40 प्रतिशत आबादी की उस भाषा में शिक्षा तक पहुंच नहीं है, जिसे वे बोलते या समझते हैं। दुनिया में बोली जाने वाली अनुमानित छह हजार भाषाओं में से लगभग 43 प्रतिशत आज संकट में हैं। भारत में यह विशेष रूप से जनजातीय क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है। जहां बच्चे उन विद्यालयों में सीखने के लिए संघर्ष करते हैं, जिनमें उनको मातृभाषा में शिक्षा नहीं दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर ओडिशा में केवल छह जनजातीय भाषाओं में एक लिखित लिपि है, जिससे बहुत से लोग साहित्य और शैक्षिक सामग्री तक पहुंच से वंचित हैं।

संस्कृत मनीषा का आर्ष सूक्त है- मातृभाषा परित्यज्य ये न्यभाषामुपासते/तत्र यान्ति हि ते यत्र सूर्यो न भासते। अर्थ है, मातृभाषा का त्याग कर अन्य भाषा अपनाते हैं, वहां ज्ञानरूपी सूर्य का उदय नही होता है। इसी सिलसिले में विश्व पुस्तक मेला-2024 की थीम रखी गई थी ‘बहुभाषी भारत एक जीवंत परंपरा’। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था- प्रत्येक के लिए अपनी मातृभाषा और सबके लिए हिंदी। लेकिन यह अब तक हो नहीं सका है।

देश की ऐसी ही मातृभाषा भोजपुरी है, जो आजादी के अमृतकाल में संवैधानिक मान्यता से वंचित है। भोजपुरी, एक हजार साल से भी पुरानी, 16 देशों में फैली, देश-विदेश में 20 करोड़ से भी ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली और भारत में हिंदी के बाद दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। भाषा वैज्ञानिक प्रो. जीएन देवी बताते हैं कि भोजपुरी में वर्तमान दौर में दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली भाषा है। मॉरीशस सरकार ने वर्ष 2011 में भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता दी है और अभी मॉरीशस के सभी ढाई सौ सरकारी हाई स्कूलों में भोजपुरी के पठन-पाठन की व्यवस्था की है। मॉरीशस सरकार की पहल पर ही भोजपुरी ‘गीत-गवनई’ को विश्व सांस्कृतिक विरासत का दर्जा यूनेस्को द्वारा दिया गया है। मॉरीशस सरकार के इस प्रस्ताव को विश्व के तकरीबन 160 देशों ने अनुमोदित किया है। भोजपुरी को मॉरीशस के अलावा नेपाल में भी संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। वहीं झारखंड सरकार ने भोजपुरी को अपने प्रदेश में द्वितीय राज्य भाषा के रूप में शामिल कर सम्मान दिया है।

बहरहाल, भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग न तो किसी भाषा विशेष का विरोध है और न ही उसे कमजोर करने की कोशिश या फिर उसे बांटने की राह है। यह मांग तो सिर्फ भोजपुरी के लिए उसकी अस्मिता, पहचान व सुविधाओं की मांग है। भोजपुरी की मान्यता का सवाल राजनीतिक नहीं नीयत का विषय है। लिहाजा इसमें खोट नहीं होना चाहिए।

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