आरक्षण की समीक्षा का समय आ रहा है

जाति जनगणना कराने के केंद्र सरकार के फैसले के बाद इस बात का इंतजार किया जा रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कब इस बारे में बोलेंगे और बोलेंगे तो क्या कहेंगे। उन्होंने एनडीए के मुख्यमंत्रियों की बैठक में इस पर चुप्पी तोड़ी और बताया जा रहा है कि उन्होंने कहा कि समाज के हाशिए पर के वंचित लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए जाति जनगणना कराने का फैसला किया गया। इसके बाद एनडीए के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में जाति जनगणना को लेकर एक प्रस्ताव भी पास किया गया। कहा गया कि भाजपा और समूचे एनडीए में इस पर सहमति है।

यह भी ध्यान रखने की जरुरत है कि जिस दिन कैबिनेट ने यह फैसला किया उससे एक दिन पहले राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी। तभी सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के बाद जमीनी फीडबैक के आधार पर यह फैसला किया या यह मूल रूप से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का विचार है? इसी के साथ दूसरा सवाल है कि क्या यह संघ का आइडिया है, जिसका मूल मकसद आरक्षण नीति की समीक्षा करना है?

ध्यान रहे 10 साल पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बिहार में आरक्षण की समीक्षा की जरुरत बताई थी और तब कितना हंगामा मचा था! नरेंद्र मोदी की अपार लोकप्रियता और तीन दशक बाद बनी पूर्ण बहुमत की पहली केंद्र सरकार के बावजूद भाजपा बिहार में चुनाव हार गई थी। मंडल राजनीति की दो मसीहा, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एक साथ आ गए थे और उन्होंने यह धारणा बनना दी थी कि संघ और भाजपा आरक्षण खत्म कर देंगे।

भाजपा और संघ की लाख सफाइयों के बाद भी यह धारणा नहीं बदली। उसके नौ साल बाद फिर से कांग्रेस, राजद, सपा जैसी पार्टियों ने यह धारणा बनवाई कि भाजपा और संघ संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने जा रहे हैं और फिर भाजपा को इस धारणा का नुकसान हुआ।

तभी ऐसा लग रहा है कि आरएसएस और भाजपा ने इस काम को दूसरी तरह से करने का फैसला किया है। सबको पता है कि कहने के अंदाज से या शब्दों के चयन से बात बदल जाती है और बन भी जाती है। एक पुराना शेर है, ‘सैफ अंदाज ए बयां रंग बदल देता है, वरना दुनिया में कोई बात नई बात नहीं होती’।

सो, केंद्र सरकार ने जाति जनगणना कराने का जो दांव चला है वह असल में 10 साल पुराना आरक्षण की समीक्षा का ही दांव है। इस बार आरक्षण का जिक्र नहीं करके जाति गणना की बात कही गई है। लेकिन अगर थोड़ी बारीकी में जाएंगे तो समझ में आ जाएगा कि इसका मकसद आरक्षण की समीक्षा करना है।

असल में संविधान में आरक्षण की व्यवस्था स्थायी नहीं बनाई थी। लेकिन यह इतना संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दा है कि कोई भी सरकार इसे हाथ नहीं लगा सकती है। तभी आजादी के 75 साल बाद भी एससी, एसटी आरक्षण चल रहा है और पिछले 32 साल से ओबीसी आरक्षण भी चल रहा है। इसे समाप्त करने या समीक्षा करके अधिकतम लाभ ले चुकी जातियों या व्यक्तियों को आरक्षण से बाहर करने की हिम्मत कोई नहीं कर पा रहा है। उलटे सब बढ़ चढ़ इसका दायरा बढ़ाने की मांग कर रहे हैं।

भाजपा ने इस बात को समझा है कि आरक्षण की समीक्षा करने या आरक्षण की वजह से सशक्त हुई जातियों को इसके दायरे से बाहर करने की बात उसके लिए नुकसानदेह हो सकती है। इसलिए उसने जाति जनगणना कराने का फैसला किया। अगली जनगणना के साथ जातियों की गिनती होगी और साथ ही उनकी आर्थिक स्थिति के आंकड़े जुटाए जाएंगे। इससे आरक्षण की व्यवस्था का लाभ लेकर अब तक सशक्त होती रही जातियों की वास्तविक स्थिति सामने आएगी। उसके बाद शुरू होगा समीक्षा का खेल। इस खेल से जातियों का हिसाब किताब पूरी तरह से छिन्न भिन्न हो जाएगा।

जो लोग ऐसा समझ रहे हैं कि जातियों की संख्या सामने आने से जातियां ज्यादा गोलबंद होंगी वे गलतफहमी में हैं। जातियां ज्यादा बिखरेंगी। भारत में किसी भी जातीय समूह में एकरूपता पहले से ही नहीं है। सभी पिछड़े एक समान नहीं हैं। कुछ पिछड़ों में ज्यादा समानता है। वैसे ही सभी दलित एक जैसे नहीं हैं और न सभी आदिवासी एक जैसे हैं। यहां तक कि सभी सवर्ण भी एक जैसे नहीं हैं। सभी समूहों में बिखराव है और संख्या के आंकड़े आने के बाद बची खुची एकरूपता भी टूटेगी।

केंद्र सरकार के पास जस्टिस जी रोहिणी की अध्यक्षता वाले आयोग की रिपोर्ट पहले से है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ जातियों को आरक्षण का ज्यादा लाभ मिला है और कुछ जातियां आरक्षण के लाभ से पूरी तरह से वंचित रह गई हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक करीब साढ़े नौ सौ जातियां ऐसी हैं, जिनको आज तक आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिला है।

सोचें, करीब चार हजारे में से साढ़े नौ सौ यानी एक चौथाई जातियों को आरक्षण से एक भी नौकरी नहीं मिली है। यह आजाद भारत में 75 साल से लागू आरक्षण की हकीकत है। अभी एक खबर आई है कि उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के एक गांव में आजादी के बाद पहली बार एक युवक ने 10वीं की परीक्षा पास की।

जाति जनगणना से आरक्षण बदलने की बुनियाद
जाहिर है उस गांव में किसी को भी आरक्षण का लाभ नहीं मिला होगा। जाति जनगणना के आंकड़ों के आधार पर सरकार उन समूहों को आरक्षण का लाभ देने की कोशिश करेगी, जो अब तक इससे वंचित रहे हैं। अनुसूचित जाति के मामले में इसकी शुरुआत हो गई है।

सुप्रीम कोर्ट ने एससी आरक्षण के अंदर आरक्षण करने यानी आरक्षण का वर्गीकरण करने का आदेश दिया है। उसके बाद भाजपा और कांग्रेस दोनों की सरकारों ने इसकी पहल शुरू कर दी है। हरियाणा की भाजपा सरकार एससी आरक्षण में वर्गीकरण कर रही है तो उधर तेलंगाना में कांग्रेस सरकार वर्गीकरण करने जा रही है।

जाति जनगणना के आंकड़ों के बाद एससी, एसटी और ओबीसी तीनों आरक्षण के अंदर वर्गीकरण होगा। कई पीढ़ी से आरक्षण का लाभ ले चुकी जातियां इसके दायरे से बाहर होंगी। उनके लिए आरक्षण की सीमा कम की जाएगी और ज्यादा वंचित जातियों के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाई जाएगी।

इससे आरक्षण का अधिकतम लाभ लेने वाली जातियां सरकार से खफा होंगी, लेकिन लगता है कि संघ और भाजपा ने इसका आकलन कर लिया है। उनको पता है कि आरक्षण का अधिकतम लाभ लेने वाली जातियों की नाराजगी जितना नुकसान पहुंचाएगी, उससे ज्यादा फायदा उन जातियों के समर्थन से होगा, जो अभी तक वंचित हैं। ध्यान रहे समाज में हर जाति समूह के अंदर मजबूत जातियां ही आरक्षण का लाभ लेती हैं।

जैसे पिछड़ों में यादव, कोईरी, कुर्मी या जाट। दलितों में पासवान और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण का सबसे बड़ा लाभ मीणा को मिलता है। तभी राजस्थान में गुर्जर चाहते हैं कि उनको भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिले और मीणा इसके विरोध में जी जान से आंदोलन करते हैं।

झारखंड और पश्चिम बंगाल में कुड़मी भी एसटी में शामिल होने के लिए आंदोलन करते हैं क्योंकि उनको पता है कि अगर एसटी का दर्जा मिल गया तो अपनी सामाजिक व आर्थिक स्थिति के कारण वे आरक्षण का अधिकतम लाभ उठा पाएंगे। बिहार में निषाद और तांती, ततमा आंदोलन कर रहे हैं कि उनको एससी का दर्जा दिया जाए ताकि वे अनुसूचित जाति के आरक्षण का अधिकतम लाभ ले सकें। महाराष्ट्र में मराठे अगर ओबीसी में शामिल हो गए तो सोचें क्या होगा!

भाजपा जाति जनगणना के बाद इस परिकल्पना को अलग तरीके से साकार करने जा रही है। मिसाल के तौर पर जाति जनगणना के आंकड़ों से पता चला कि एसटी आरक्षण में मीणा सर्वाधिक लाभार्थी वर्ग हैं और दूसरी एसटी जातियों को लाभ नहीं मिला है तो सरकार एसटी आरक्षण के अंदर वर्गीकरण करके वंचित जातियों के लिए उसका ज्यादा हिस्सा आरक्षित कर सकती है।

इससे मीणा नाराज होंगे लेकिन दूसरी एसटी जातियां खुश होंगी और भाजपा का साथ दे सकती हैं। ऐसे ही अगर यादव भाजपा के समर्थक नहीं हैं तो उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों जगह उनका आरक्षण कम किया जा सकता है और अत्यंत पिछड़ी जातियों यानी ईबीसी का आरक्षण बढ़ाया जा सकता है तो भाजपा को उनका एकमुश्त समर्थन मिलेगा।

ऐसे ही पूरे देश में मजबूत पिछड़ी जातियों, दलित समूहों और जनजातियों का आरक्षण कम करके अत्यंत पिछड़े, महादलित और वंचित जनजातियों को आरक्षण का ज्यादा लाभ दिया जा सकता है। चूंकि यह काम जाति जनगणना के आंकड़ों के आधार पर होगा तो इस पर कोई सवाल नहीं उठाएगा और अगर सवाल उठाए गया तब भी समाज का ध्रुवीकरण अलग तरीके से होगा। मोहन भागवत ने आरक्षण की जिस समीक्षा की बात कही थी वह यही है। ऐसा होता है तो आरक्षण की सीमा बढाए बगैर उसे तर्कसंगत बना कर अपेक्षाकृत ज्यादा वंचितों को ज्यादा लाभ पहुंचाया जा सकता है।

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