इतिहास में उलझे हुए

कांग्रेस का बहुसंख्यक धड़ा आज के मुद्दों से नजर मिलाने को तैयार नहीं है। पार्टी की रणनीति अतीत गौरव का गान, सामाजिक न्याय के घिसे-पिटे जुमलों को दोहराने और मोदी सरकार के प्रति आक्रामक रुख अपनाने तक सीमित हो गई है।

कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन ने फिर साफ किया है कि यह पार्टी इतिहास में उलझ कर रह गई है। अहमदाबाद अधिवेशन का मुख्य विषयवस्तु सरदार वल्लभभाई पटेल की विरासत को वापस पाने की जद्दोजहद रहा। उनके बहाने कांग्रेस के “राष्ट्रवाद” और आरएसएस- भाजपा के “छद्म राष्ट्रवाद” के बीच का फर्क बताने की कोशिश की गई। इसके अलावा इतिहास में रहे जातीय अन्याय की चर्चा के अपने नवजात उत्साह में पार्टी उलझी नजर आई। इस बीच जो बात खो गई, वो यह है कि आज की पीढ़ियों के लिए उसके पास क्या एजेंडा और सपना है? पार्टी के कुछ नेताओं ने इस पर जोर दिया कि कांग्रेस को इतिहास और “नकारात्मकता” की राजनीति से निकल कर युवा वर्ग की चिंताओं के अनुरूप आज के मुद्दों पर कार्यक्रम पेश करना चाहिए।

मगर पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्व ने उसे नजरअंदाज कर दिया। यह संकेत है कि पार्टी का बहुसंख्यक धड़ा अतीत के गौरव मोह से निकलने को तैयार नहीं है। ऐसे में कांग्रेस की रणनीति अतीत गौरव का गान, सामाजिक न्याय के घिसे-पिटे जुमलों को दोहराने और नरेंद्र मोदी सरकार के प्रति आक्रामक रुख अपनाने तक सीमित हो गई दिखती है। यह भी विडंबना है कि अहमदाबाद में पार्टी ने इंडिया गठबंधन के गठन और उसे चलाने में अपनी ‘रचनात्मक’ भूमिका का बखान किया। जबकि अनेक घटक दल गठबंधन को निष्क्रिय बनाने के लिए कांग्रेस की आलोचना करते रहे हैं।

हकीकत यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद हर व्यावारिक रूप में यह गठबंधन अपनी भूमिका खो चुका है। वैसे भी यह कभी राज्यों के स्तर पर सीटों के तालमेल से आगे नहीं बढ़ पाया। इसलिए कांग्रेस का यह दावा अजीब है कि ‘जन मुद्दों पर समान रुख’ आधारित इसके ढांचे को कायम रखने में कांग्रेस ने अहम भूमिका निभाई है। सवाल है कि सरदार पटेल की विरासत पर बहस छेड़ने या इंडिया गठबंधन के बारे में अयथार्थ दावे करने से कांग्रेस को क्या कोई ठोस लाभ होगा? चूंकि इसकी संभावना कमजोर नजर आती है, इसलिए कहा जाएगा कि अहमदाबाद अधिवेशन को कांग्रेस में ऊर्जा भरने का अवसर बनाने में पार्टी नेतृत्व नाकाम रहा है।

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