विश्व विरासत दिवस: मसाले भी हमारी धरोहर, भारतीय मसालों ने बदली विश्व इतिहास की दिशा

जयपुर।विश्व विरासत दिवस के अवसर पर, हम उन सांस्कृतिक परंपराओं और धरोहरों को सम्मानित करते हैं जो समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं और आज भी जीवंत हैं। ऐसी ही समृद्ध धरोहर हैं — भारतीय मसाले। ये न केवल हमारी पाककला से जुड़ी परंपराओं की आत्मा हैं, बल्कि चिकित्सा, धार्मिक अनुष्ठानों और वैश्विक व्यापार की धुरी भी रहे हैं। भारत की विविध जलवायु और उपजाऊ मिट्टी से उपजे मसालों की विरासत केवल स्वाद तक सीमित नहीं रही, बल्कि आयुर्वेद, सांस्कृतिक अनुष्ठान, और वैश्विक खानपान को भी गहराई से प्रभावित करती रही है।

सेहत, संस्कृति और स्वाद पर असर
हल्दी: प्राचीन आयुर्वेद में रोगनाशक और त्वचा संरक्षण के लिए प्रसिद्ध।
धार्मिक अनुष्ठानों और शुभ अवसरों में अनिवार्य।
काली मिर्च: ’काला सोना’ कहलाने वाला यह मसाला कभी भारत से रोम तक के व्यापार का प्रमुख आधार रहा।
औषधीय रूप से पाचन सुधारक और सर्दी-जुकाम के लिए उपयोगी।
इलायची: मुंह की दुर्गंध दूर करने से लेकर मिठाइयों और चाय का स्वाद बढ़ाने तक एक बहुपयोगी मसाला।
केरल और कर्नाटक में इसकी खेती हजारों सालों से की जाती रही है।
दालचीनी: प्राचीन भारत में सुगंध और चिकित्सा के लिए प्रिय रही।
विदेशी यात्रियों ने इसे मसालों में ’स्वर्ण’ बताया।
लौंग: दांत दर्द और सर्दी में राहत देने वाला मसाला।
भारत के साथ जंजीबार और मलक्का से भी इसका ऐतिहासिक व्यापार रहा।
जीरा: हजारों वर्षों से भारतीय तड़के की आत्मा।
अपच और गैस संबंधी आयुर्वेदिक नुस्खों में अनिवार्य।
सौंफ: भोजन के बाद पाचन हेतु प्रयोग।
मिठास व शीतलता का प्रतीक।
भारत यानी ‘मसालों की भूमि’
मसालों ने न केवल भारत को ’मसालों की भूमि’ की उपाधि दिलाई है बल्कि मसालों की सुगंध ही है जिसने विश्व इतिहास की नई दिशा दी।

समुद्री खोजों का बने मूल कारण
यूरोप में 15वीं सदी तक काली मिर्च, दालचीनी, लौंग और जायफल की भारी मांग थी।
सिल्क रोड असुरक्षित हुई, तो यूरोपीय देशों ने समुद्री रास्ते से भारत पहुंचने की कोशिशें तेज कीं।
वास्को द गामा (1498) भारत पहुंचा — सिर्फ मसालों की तलाश में। नतीजा: नए समुद्री मार्गों की खोज और औपनिवेशिक युग की शुरुआत।

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