युद्ध स्थगित, राजनीति शुरू

‘लोग कभी भी इतना झूठ नहीं बोलते, जितना शिकार के बाद, युद्ध के दौरान और चुनाव से पहले बोलते हैं’। यह उक्ति ओटो वॉन बिस्मार्क की बताई जाती है हालांकि कई जानकार इस पर सवाल उठाते हैं। लेकिन इतना तय है कि किसी जर्मन ने यह बात कही थी। सोचें, कितनी सही बात है! अभी हम लोगों ने एक बेहद संक्षिप्त युद्ध देखा। आजाद भारत के इतिहास का सबसे छोटा। महज चार दिन का।

इससे पहले पाकिस्तान से 1965 में 22 दिन का युद्ध हुआ था। 1971 में भी युद्ध 13 दिन चला था और कारगिल की लड़ाई तो 85 दिन चली थी। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ महज चार दिन यानी 96 घंटे चला। लेकिन दावा किया जा रहा है कि, ‘जिन्होंने भारत की महिलाओं का सिंदूर मिटाया, उनको मिटा दिया गया’। चार दिन की सैन्य कार्रवाई के बाद 10 मई की शाम को सीजफायर हुआ और 12 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र को संबोधित किया।

प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करने आए उससे पहले उनकी पार्टी के तमाम बड़े नेताओं की बैठक हुई थी और मंगलवार, 13 मई से पूरे देश में तिरंगा यात्रा निकालने का फैसला हुआ था। भाजपा के तमाम शीर्ष नेताओं ने बैठ कर विचार किया था कि इस यात्रा से क्या नैरेटिव तय करना है। उसी नैरेटिव को प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में स्वर दिया। प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संबोधन से पहले लगातार दो दिन प्रेस कॉन्फ्रेंस करके तीनों सेनाओं के वरिष्ठ अधिकारियों ने हर बात देश को बता दी थी। उन्होंने इस सैन्य अभियान से जुड़े बारीक से बारीक तथ्य भी देश के सामने रख दिए थे।

लेकिन वह एक पेशेवर सेना के नजरिए से की गई प्रेस ब्रीफिंग थी, जिसमें राजनीति का तत्व नहीं था या सोशल नैरेटिव क्रिएट करने की सोच नहीं थी। उस कमी को प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में पूरा किया। प्रधानमंत्री ने एक व्यापक सोशल व पोलिटिकल नैरेटिव खड़ा किया, जिसे लेकर उनकी पार्टी के लोग तिरंगा यात्रा कर रहे हैं। अगले 10 दिन यानी 23 मई तक देश भर में प्रधानमंत्री की बातों को पहुंचाया जाएगा कि कैसे भारत ने महिलाओं का सिंदूर मिटाने वालों को मिटा दिया।

कैसे आतंकवाद का ढांचा तहस नहस कर दिया गया। कैसे भारत ने तय किया कि वह पाकिस्तान की परमाणु ब्लैकमेलिंग का शिकार नहीं बनेगा। कैसे चार दिन में पाकिस्तान घुटनों पर आ गया और गुहार लगाने लगा। आदि।

ऑपरेशन सिंदूर और तिरंगा यात्रा
यह दुनिया के इतिहास में संभवतः पहली बार है कि युद्ध लड़ने वाले दोनों देश जीत का जश्न मना रहे हैं। पाकिस्तान में ऑपरेशन ‘बुनयान अल मरसूस’ की सफलता का दावा किया जा रहा है और ‘यौम ए तशक्कुर’ मनाया जा रहा है तो भारत में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता का जश्न मनाया जा रहा है और तिरंगा यात्रा निकाली जा रही है। इससे पहले 1965, 1971 और 1999 के युद्ध के बाद सिर्फ भारत में जश्न मनाया गया था। एक पुरानी कहावत है, ‘हर बात पर यकीन मत करो। हर कहानी के तीन पहलू होते है; एक तुम्हारा, एक उनका और एक सचाई’।

बहरहाल, भारत में इस संक्षिप्त युद्ध के दौरान ही राजनीति शुरू हो गई थी। ऐन युद्ध के बीच भारतीय जनता पार्टी ने एक वीडियो जारी किया, जिसमें कांग्रेस की सरकारों के समय हुए आतंकवादी हमलों खास कर मुंबई का हमला और उसके बाद सरकार की चुप्पी दिखाई गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तस्वीरों और वीडियो के साथ इसे बनाया गया था और कहा गया था कि अब नरेंद्र मोदी की नेतृत्व वाली सरकार चुप नहीं रहती है, बल्कि ईट का जवाब पत्थर से देती है। भारत अब नया देश है, जो घर में घुस कर मारता है।

सोचें, जिस समय सेना युद्ध लड़ रही थी और कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी पार्टियां सरकार के साथ खड़ी थीं उस समय सत्तारूढ़ दल ने एक वीडिया जारी करके युद्ध का श्रेय लेने की राजनीति की। अनेक तटस्थ और निरपेक्ष सोच रखने वालों ने भी कहा कि भाजपा के इस प्रचार अभियान की टाइमिंग ठीक नहीं है। लेकिन राजनीति जब जंग का रूप ले लेती है तो उसमें सही और गलत का आकलन किसी नैतिक पैमाने पर नहीं होता है, बल्कि सफलता के आधार पर होता है।

इसके बाद जब अचानक सीजफायर हुआ तो सभी स्तब्ध रह गए। विपक्षी पार्टियों और राजनीति से निरपेक्ष लोगों ने भी याद दिलाया कि कैसे भाजपा के नेता कहते रहे थे कि सेना युद्ध जीत रही हो तो युद्धविराम नहीं किया जाता है और खुद सेना को रोक कर सीजफायर कर दिया! टाइमिंग और उपलब्धि दोनों लिहाज से सीजफायर का नैरेटिव भाजपा के खिलाफ बन गया। पहली बार ऐसा हुआ था कि सीजफायर की घोषणा किसी तीसरे देश ने की थी। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दुनिया को बताया कि उन्होंने सीजफायर कराया है।

इस पर राजनीति करने का मौका कांग्रेस को मिला। उसने पार्टी मुख्यालय के आगे इंदिरा गांधी का बड़ा होर्डिंग लगवाया और लिखा, ‘इंदिरा होना आसान नहीं है’। असल में इंदिरा गांधी को भी 1971 में अमेरिका ने युद्ध रोकने को कहा था लेकिन उन्होंने मना कर दिया था। इंदिरा गांधी ने उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति को जो चिट्ठी लिखी थी उसकी भी कॉपी कांग्रेस ने जारी की।

कांग्रेस के इकोसिस्टम ने 1971 की लड़ाई के अंत में पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी और 90 हजार से ज्यादा सैनिकों के सरेंडर की तस्वीरें भी सोशल मीडिया में साझा कीं। हालांकि कांग्रेस के ही नेता शशि थरूर ने यह कह कर इस नैरेटिव को कमजोर किया कि 1971 की स्थिति अलग थीं और आज की स्थिति अलग है। उन्होंने जो कहा वह उनकी निजी और केरल विधानसभा चुनाव की राजनीति से जुड़ा है।

अगर ट्रंप सीजफायर को लेकर बार बार बयान नहीं देते और उसका श्रेय नहीं लेते तो भाजपा को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। लेकिन ट्रंप की वजह से भाजपा को थोड़ी समस्या हुई। तभी राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीजफायर को लेकर अपनी कहानी बताई। उन्होंने कहा कि चार दिन में भारत ने पाकिस्तान को घुटनों पर ला दिया, जिसके बाद पाकिस्तान दुनिया भर के देशों के सामने गुहार लगाने लगा। मोदी ने आगे कहा कि चूंकि तब तक भारत अपना लक्ष्य हासिल कर चुका था और आतंकवाद के ढांचे को नष्ट कर चुका था इसलिए उसने सीजफायर पर सहमति दे दी।

इस तरह प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार को सैन्य और कूटनीतिक दोनों सफलता की कहानी बताई। अब यही कहानी भाजपा के नेता देश भर में सुनाएंगे। तिरंगा यात्रा में भाजपा के वरिष्ठ नेता शामिल होंगे। वे भारतीय सेना के शौर्य, नए भारत की ताकत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महान नेतृत्व की गाथा देश के लोगों को सुनाएंगे। देशभक्ति का उबाल लाने का प्रयास करेंगे।

इस साल के अंत में बिहार में और अगले साल पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुड्डुचेरी में विधानसभा के चुनाव हैं। वहां भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार की महान विजय की कहानियां सुनाई जाएंगी। दूसरी ओर कांग्रेस दुविधा में है क्योंकि उसकी सहयोगी पार्टियां इस महान विजय गाथा को चुनौती देने के मूड में नहीं दिख रही हैं। उनकी कोशिश इस उफान को चुपचाप उतर जाने देने की है। हालांकि भाजपा आसानी से ऐसा होने देगी, इसकी उम्मीद कम है।

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