विपक्षी गठबंधन में क्या कांग्रेस बाधक ?

भाजपा विरोधी विपक्षी गठबंधन में अभी जो समस्याएं दिख रही हैं क्या उनके लिए कांग्रेस जिम्मेदार है? क्या कांग्रेस के कारण राज्यों में विपक्षी गठबंधन यानी ‘इंडिया’ ब्लॉक कारगर नहीं हो सका? हाल के राजनीतिक घटनाक्रम के बाद यह सवाल विपक्षी पार्टियों की ओर से उठाया जा रहा है तो भाजपा विरोधी इकोसिस्टम के राजनीतिक विश्लेषक भी कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कांग्रेस की दो कदम आगे बढ़ने और एक कदम पीछे हटने की राजनीति के कारण विपक्षी गठबंधन की मुश्किलें बढ़ी हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि अकेले कांग्रेस तमाम समस्याओं के लिए जिम्मेदार है। प्रादेशिक क्षत्रपों की महत्वाकांक्षा भी इसके लिए जिम्मेदार है तो केंद्र की सत्ता के आगे समर्पण या किसी किस्म के लोभ के कारण भी प्रादेशिक क्षत्रप गठबंधन को कमजोर करने वाले कदम उठा रहे हैं।

अगर कांग्रेस की बात करें तो कह सकते हैं कि पुनर्जीवित होने की उम्मीद ने कांग्रेस की तार्किक सोच को प्रभावित किया है। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस जिस स्थिति में थी वह स्थिति बदल गई है। लोकसभा चुनाव में 99 सीटें जीतने के बाद कांग्रेस को लगने लगा कि उसकी वापसी शुरू हो गई और भाजपा का ढलान आ गया। जैसे कांग्रेस बिना अपवाद के हर चुनाव के बाद जनादेश की गलत व्याख्या करती है वैसे ही इस बार भी किया। इस बार कांग्रेस को यह लगा कि विपक्षी गठबंधन यानी ‘इंडिया’ ब्लॉक को जो 204 सीटें आई हैं और विपक्ष ऐतिहासिक रूप से मजबूत होकर उभरा है वह उसकी वजह से हुआ है। उसने यह नहीं माना कि उसकी 99 सीटें और विपक्ष की 204 सीटें विपक्षी गठबंधन की सामूहिक ताकत से आई हैं और इसमें प्रादेशिक क्षत्रपों का भी योगदान है। कांग्रेस ने माना कि प्रादेशिक क्षत्रपों को भी जो फायदा हुआ है वह उसकी वजह से हुआ है। दूसरी ओर प्रादेशिक क्षत्रप समझ रहे हैं कि उनकी वजह से कांग्रेस का प्रदर्शन सुधरा है।

लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस यह मानने लगी कि देश का मुसलमान अब पूरी शिद्दत के साथ उसके साथ खड़ा है और मल्लिकार्जुन खड़गे की वजह से दलित की वापसी हो रही है। इसके अलावा एक बड़े समूह का भाजपा से मोहभंग हो रहा है और वह कांग्रेस को विकल्प के तौर पर देख रहा है। कांग्रेस ने जून 2024 के बाद इसी सोच में काम किया। इसका नतीजा यह हुआ है कि लोकसभा चुनाव में प्रादेशिक पार्टियों के सामने सरेंडर करके अब तक के सबसे कम सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ी कांग्रेस विधानसभा चुनावों में ज्यादा सीटों के लिए अड़ गई या गठबंधन से इनकार कर दिया।

जम्मू कश्मीर और महाराष्ट्र के नतीजों से कांग्रेस का यह भ्रम टूट जाना चाहिए था कि प्रादेशिक पार्टियां उसकी वजह से जीत रही हैं। वहां कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच ठीक से तालमेल नहीं हुआ। 90 सीटों की नेशनल कॉन्फ्रेंस 56 और कांग्रेस 38 सीटों पर लड़ी। इस तरह छह सीटों पर दोस्ताना मुकाबला हुआ। नतीजों में फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस 56 में से 42 सीटों पर जीती, जबकि कांग्रेस 38 लड़ कर सिर्फ छह सीटें जीत पाई। उसको पिछली बार से भी छह सीटें कम मिलीं। ऐसे ही महाराष्ट्र में अंतिम समय तक गठबंधन अटका रहा और नतीजा यह हुआ कि पूरा गठबंधन ही साफ हो गया। 288 के सदन में विपक्षी गठबंधन को सिर्फ 46 सीटें मिलीं।

कांग्रेस ने परिणाम को स्वीकार करने और उसके हिसाब से सुधार करने की बजाय यह कहना और मानना शुरू कर दिया कि मतदाता सूची और ईवीएम में गड़बड़ी से भाजपा का गठबंधन जीता है। अभी तक कांग्रेस यही मान रही है। महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर के नतीजे के बाद कायदे से कांग्रेस को संभल जाना चाहिए था और हरियाणा व दिल्ली में वापस ‘इंडिया’ ब्लॉक को पुनर्जीवित करना चाहिए था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। आम आदमी पार्टी को अकेले लड़ने दिया। सो, जो हाल हरियाणा का हुआ वही दिल्ली का हुआ। दोनों जगह भाजपा ने सरकार बनाई। झारखंड में जरूर विपक्षी गठबंधन चुनाव जीता लेकिन उसमें कांग्रेस का रत्ती भर योगदान नहीं है। कांग्रेस ने तो टिकटों में जैसी बंदरबांट की थी, अगर झारखंड मुक्ति मोर्चा के लिए बहुत तेज लहर नहीं होती तो वहां भी भाजपा की सरकार बनती।

जाहिर है विपक्षी गठबंधन कमजोर होने या राज्यों के चुनाव में बिखरने के लिए कांग्रेस काफी हद तक जिम्मेदार है। लेकिन ऐसा नहीं है कि प्रादेशिक क्षत्रपों की जिम्मेदारी कम है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटों के लगभग दोगुना होने का असर यह हुआ कि सभी प्रादेशिक पार्टियां आशंकित हो गईं। उनको कांग्रेस की वापसी की चिंता सताने लगी। उनको लगने लगा कि अगर कांग्रेस पहले की तरह मजबूत होती है तो यह उनके लिए मुश्किल वाली बात होगी। तभी सबने तेवर दिखाने शुरू कर दिए। एक तरफ कांग्रेस मान रही थी कि उसकी वजह से लोकसभा चुनाव जीते हैं तो दूसरी ओर प्रादेशिक पार्टियां मान रही थीं कि उनके कंधे पर सवार होकर कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया।

इस थ्योरी को भाजपा ने भी सपोर्ट किया। भाजपा नेताओं ने कहा कि कांग्रेस परजीवी हो गई है और प्रादेशिक पार्टियों के दम पर जैसे तैसे सांस ले रही है। इस थ्योरी को समझने के लिए सिर्फ एक समाजवादी पार्टी की मिसाल दी जा सकती है। उत्तर प्रदेश में उसने कांग्रेस से तालमेल किया और 37 सीटें जीती। वहां दोनों ने एक दूसरे के लिए पूरक का काम किया। इस ऐतिहासिक नतीजे के बाद दोनों एक दूसरे को संदेह की नजर से देखने लगे। कांग्रेस को लेकर ऐसा संदेह बाकी प्रादेशिक पार्टियों में भी दिखा।

तभी अखिलेश यादव से लेकर ममता बनर्जी और लालू प्रसाद से लेकर शरद यादव व उद्धव ठाकरे तक नेतृत्व बदलने के ममता बनर्जी के राग का समर्थन करने लगे। कहा जाने लगा कि ममता बनर्जी को नेता बनाया जाए। इनमें से किसी ने समझदारी की बात नहीं की और न विपक्षी गठबंधन को एकजुट रखने का प्रयास किया। उलटे सबने आग में घी डालने का काम किया। अगर प्रादेशिक पार्टियों के नेता गठबंधन बचाने का प्रयास करते तो वे हरियाणा और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के बीच तालमेल करा सकते थे। वे यह बात भी भूल गए कि विपक्षी पार्टियों को एक मंच पर ले आने और ‘इंडिया’ ब्लॉक का गठन करने में एक प्रादेशिक क्षत्रप नीतीश कुमार ने ही सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी।

इसलिए ऐसा नहीं था कोई बड़ा प्रादेशिक नेता पहल करता तो कांग्रेस उसकी बात नहीं सुनती। लेकिन कांग्रेस को खतरा मान रहे प्रादेशिक क्षत्रपों ने तालमेल कराने की बजाय कांग्रेस के खिलाफ स्टैंड लिया और आम आदमी पार्टी का समर्थन किया। इससे भी उनकी मानसिकता जाहिर हुई। इस साल के अंत में बिहार का चुनाव है और अगले साल पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। अगर विपक्षी पार्टियों ने लोकसभा चुनाव के बाद हुए राज्यों के चुनाव के सबक की अनदेखी की तो कांग्रेस और सभी प्रादेशिक पार्टियों की मुश्किलें और बढ़ेंगी। फिर यह बहस ही नहीं बचेगी कि विपक्षी गठबंधन के रास्ते की बाधा कौन है।

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