भाजपा-कांग्रेस की जात राजनीति का फर्क
यह सही है कि हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में जाति का मुद्दा बहुत प्रभावी नहीं रहा फिर भी यही वह मुद्दा है, जो भाजपा के लिए गले की हड्डी है। अगले लोकसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन के एकजुट हो जाने और हर सीट पर विपक्ष का एक उम्मीदवार उतारे जाने की रणनीति से भाजपा जितनी चिंता में नहीं है उससे ज्यादा चिंता में वह जाति गणना और आरक्षण की राजनीति को लेकर है। इसी को साधने के लिए उसने तीनों राज्यों में नए प्रयोग किए हैं। भाजपा ने पहली बार तीनों राज्यों में दो दो उप मुख्यमंत्री बनाए हैं। आदिवासी मुख्यमंत्री के साथ पिछड़ा और ब्राह्मण उप मुख्यमंत्री है तो, पिछड़ा सीएम के साथ दलित और ब्राह्मण डिप्टी सीएम है। ब्राह्मण मुख्यमंत्री के साथ दलित और राजपूत उप मुख्यमंत्री बनाया गया है। लोकसभा चुनाव से पहले जाति का संतुलन बनाने की यह भाजपा की बड़ी कोशिश है।
असल में कांग्रेस और मंडल राजनीति से निकली उसकी सहयोगी पार्टियों ने जाति गणना और आरक्षण बढ़ाने को बड़ा मुद्दा बना दिया है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी जाति गणना और आबादी के अनुपात में आरक्षण देने के वादे पर पांच राज्यों में चुनाव लड़ रहे थे। हालांकि इसके बावजूद कांग्रेस जाति के मामले में संवेदनशील उत्तर भारत के तीनों राज्यों में चुनाव हार गई। जाति का नैरेटिव सेट होने से पहले जिन राज्यों में भाजपा के जीत जाने का अनुमान था वहां भी वह हारी और बहुत बुरी तरह से हारी। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहां सामाजिक न्याय की राजनीति से कांग्रेस को बढ़त मिलने की संभावना थी और वहां भाजपा निर्णायक रूप से जीती। छत्तीसगढ़ में उसे कांग्रेस से चार फीसदी और मध्य प्रदेश में 10 फीसदी वोट ज्यादा मिला। इसके बावजूद कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियां जाति की राजनीति से पीछे नहीं हटने वाली हैं और अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को इसका मुकाबला करना होगा।
भाजपा को इतनी समझ है कि कांग्रेस और राहुल गांधी की तरह जाति की एकतरफा राजनीति नहीं करनी चाहिए क्योंकि उससे दूसरे समूह नाराज होते हैं और उसका नुकसान हो सकता है। उसे यह भी पता है कि हिंदुत्व के व्यापक एजेंडे के भीतर जाति का चक्र चलता रहता है। इस देश में लोग धर्म बदल सकते हैं लेकिन जाति नहीं छूटती है। मुस्लिम और ईसाई बन जाने के बावजूद लोग अपनी जाति के दायरे से बाहर नहीं निकलते हैं। इस वजह से भाजपा जाति को लेकर कंफ्यूजन बनाए रखेगी। तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार बार कह रहे हैं कि उनके लिए सिर्फ चार जातियां हैं- गरीब, किसान, युवा और महिलाएं। इससे ऐसा लग रहा है कि वे जाति की पारंपरिक परिभाषा को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन यह सिर्फ एक आवरण है, जिससे विपक्ष की जाति की राजनीति को ढकने का प्रयास हो रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो उप राष्ट्रपति जगदीप धनकड़ की मिमिक्री किए जाने को जाट जाति के अपमान से नहीं जोड़ा जाता। अगर भाजपा सचमुच प्रधानमंत्री मोदी के बताए चार जाति वाले सिद्धांत को मानती तो जाट की बजाय किसान जाति के अपमान का मुद्दा बनाती। लेकिन जहां राजनीतिक फायदा हो सकता है वहां वह पारंपरिक जाति को आगे करेगी। तीन राज्यों में मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री बनाने में वहीं किया गया है।
जाति के मामले पर कंफ्यूजन बनाए रखने की राजनीति के तहत ही भाजपा के नेता अलग अलग जुबान में बोल रहे हैं तो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के पदाधिकारी भी अलग अलग स्टैंड लिए हुए हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष की जाति राजनीति का विरोध किया और कहा कि देश में सिर्फ चार जातियां हैं तो दूसरी ओर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने खुल कर कहा कि भाजपा जाति गणना कराने के खिलाफ नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि बिहार में जो जाति गणना हुई है उसका श्रेय भाजपा को भी मिलना चाहिए क्योंकि जब यह फैसला हुआ तो वह सरकार में थी। उत्तर प्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री जाति गणना का विरोध करते हैं तो उप मुख्यमंत्री इसका समर्थन करते हैं। भाजपा की सहयोगी पार्टी की नेता अनुप्रिया पटेल ने जाति गणना की खुल कर जरुरत बताई है।
पिछले दिनों आरएसएस के विदर्भ के प्रमुख श्रीधर गडगे ने जाति गणना का विरोध किया। महाराष्ट्र सरकार के भाजपा और शिव सेना के विधायक व मंत्री उनसे मिलने गए थे। उनसे मुलाकात के दौरान गडगे ने जाति गणना को गैरजरूरी बताते हुए इसे देश तोड़ने वाला बताया। हालांकि इसके अगले ही दिन जैसे ही यह खबर फैली वैसे ही राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के बड़े पदाधिकारी सुनील आंबेकर ने इस पर सफाई दी। उन्होंने कहा कि संघ जाति गणना के खिलाफ नहीं है लेकिन वह समाज में विभाजन बढ़ाने वाला नहीं होना चाहिए। कुछ दिन पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पिछड़ी और दलित समुदायों को ध्यान में रखते हुए यहां तक कहा था कि उनके ऊपर ऐतिहासिक रूप से अत्याचार हुआ है। इस तरह उन्होंने अगड़ी जातियों द्वारा वंचित समूहों के शोषण की मंडल वाली थ्योरी पर मुहर लगाई थी। हालांकि इससे पहले भागवत 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के समय जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था की समीक्षा की जरुरत बता चुके हैं। लेकिन उसी चुनाव में भाजपा को जितना बड़ा झटका लगा उससे पार्टी और संघ दोनों ने सबक सीख लिया। तभी यह तय कर लिया गया कि अब खुल कर कुछ नहीं कहना है क्योंकि जाति का मामला संवेदनशील है और भाजपा इस खेल की माहिर खिलाड़ी नहीं है। भाजपा को यह भी समझ में आया कि वह जाति के खेल में उतरी तो हिंदुत्व की राजनीति का व्यापक फलक छोटा पड़ जाएगा।
इसलिए हिंदुत्व की व्यापक राजनीति के साथ साथ भाजपा और संघ के नेता जातियों को साधने की बारीक राजनीति करते रहेंगे। किसी न किसी रूप में हर राज्य में भाजपा यह राजनीति कर रही है। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, राजपूत के साथ गैर यादव पिछड़ा समीकरण साधा जा रहा है तो बिहार में गैर यादव पिछड़ा और सवर्ण का समीकरण बना है। झारखंड व छत्तीसगढ़ में आदिवासी व पिछड़ा समीकरण बनाया गया है तो मध्य प्रदेश में यादव मुख्यमंत्री व दलित व ब्राह्मण उप मुख्यमंत्री के जरिए समूचे पिछड़ा, दलित और सामान्य वर्ग को साथ लाने का प्रयास हुआ है। राजस्थान में भी बदले हुए रुप में मध्य प्रदेश वाला प्रयोग हुआ है। यहां तक कि कर्नाटक में लिंगायत और वोक्कालिगा दोनों को साधने का प्रयास हुआ है तो आंध्र प्रदेश में कापू और कम्मा दोनों को साथ लाने की कोशिश हो रही है। सोचें, इतनी जाति की इतनी बारीक राजनीति करके बावजूद भाजपा ने यह राजनीतिक नैरिटव बना रखा है कि वह सिर्फ चार जातियों को मानती है।