लेकिन किन शर्तों पर?
आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में बिना कोई ठोस मुकाम हासिल हुए युद्विराम का फैसला निराशाजनक है। उससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात है कि भारत ने इस पूरे मसले में तीसरे पक्ष को भूमिका बनाने का मौका दिया है।
भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध टलने पर राहत महसूस हुई है, लेकिन जिन शर्तों पर यह हुआ है, वे बेचैन करने वाली हैं। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में बिना कोई ठोस मुकाम हासिल किए भारत सरकार ने लड़ाई रोकने का फैसला किया, यह निराशा का एक पहलू है। उससे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि भारत ने इस पूरे मसले में तीसरे पक्ष की भूमिका को निर्णायक हो जाने दिया है। इस हद तक कि युद्धविराम का पहला एलान अमेरिकी डॉनल्ड ट्रंप ने किया। इसकी शर्तों की पहली घोषणा अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने की।
ट्रंप प्रशासन ने इसे सार्वजनिक करने में तनिक देर नहीं लगाई कि उसकी मध्यस्थता और सक्रियता से दोनों देश लड़ाई रोकने पर राजी हुए हैं। इस तरह 1972 के शिमला समझौते में हासिल उस कामयाबी को हाथ से निकल जाने दिया है, जिसके तहत पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर मसले को द्विपक्षीय दायरे में रखने पर वचनबद्ध हुआ था। 1999 में लाहौर घोषणापत्र में भी उसने इसे दोहराया। शिमला समझौते के बाद से भारत और पाकिस्तान की सारी वार्ताएं इन दोनों में से किसी एक देश में ही हुईं। अब भारत तटस्थ स्थल पर बातचीत के लिए राजी होकर एक तरह से शिमला से पीछे ताशकंद (जहां 1965 के युद्ध के बाद सोवियत मध्यस्थता में वार्ता हुई थी) लौट गया है।
सवाल हैं कि तटस्थ स्थल पर किन मुद्दों पर बातचीत होगी? क्या उसमें जम्मू-कश्मीर की स्थिति का प्रश्न भी शामिल होगा? फिर भाजपा की उस बहुत पुरानी नीति का क्या होगा कि ‘गोली और बोली दोनों साथ-साथ नहीं चल सकतीं’? अगस्त 2019 में धारा 370 निरस्त करने के बाद से नरेंद्र मोदी सरकार पाकिस्तान के साथ बातचीत ना करने की नीति पर चलती रही है। अब उसे अचानक क्यों बदल दिया गया है? केंद्र ने कहा है कि आगे कोई आतंकवादी हमला होने पर उसे युद्ध की कार्रवाई माना जाएगा। लेकिन जब इस बार भारत ने पाकिस्तान पर निर्णायक बढ़त बनाने का मौका खो दिया है, तो आतंकवादी और उनके संरक्षक इस निर्णय से कितने भयभीत होंगे? बेहतर होगा, केंद्र इन प्रश्नों पर देश को भरोसे में ले।