सांसद बन कर भी क्या करेंगे?
इन दिनों देश की राजनीति राज्यसभा के चुनाव में उलझी है। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी इस चिंता में है कि कहीं उसके सांसदों की संख्या एक सौ से कम नहीं हो जाए। उधर देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने विधायकों की क्रास वोटिंग को लेकर ऐसी चिंता में है कि उन्हें बाड़ों में ले जाकर बंद कर रही है। छोटी-छोटी प्रादेशिक पार्टियों को अपना जातीय समीकरण साधने या आर्थिक संकट हल करने की चिंता थी, जो उन्होंने काफी हद तक दूर कर ली है। मीडिया समूह चलाने वाले कुछ कारोबारी अपनी प्रतिबद्धता के प्रसाद के रूप में राज्यसभा हासिल करने की उम्मीद में हैं और उसकी जोड़-तोड़ में लगे हैं। कुल मिला कर इस समय देश का सबसे अहम और एकमात्र राजनीतिक विमर्श राज्यसभा का चुनाव है।
परंतु सवाल है कि ये जो नए लोग राज्यसभा में चुन कर जाएंगे वे क्या करेंगे? या जो पहले से उच्च सदन के सदस्य हैं वे क्या कर रहे हैं? राज्यसभा के लिए जो चुना जाएगा उसकी यह एक निजी उपलब्धि होगी। सांसद के रूप में उसकी पहचान होगी। लुटियन जोन में उसे अपनी हैसियत के मुताबिक कोठी या फ्लैट आवंटित होगा, जिसमें मुफ्त की बिजली, पानी और फोन की सुविधा होगी। उसकी गाड़ी पर संसद भवन का पास लगेगा। संसद की कार्यवाही में शामिल होने के लिए भत्ता मिलेगा और अपने चुनाव क्षेत्र में काम करने के लिए भी भत्ता मिलेगा। मुफ्त हवाई और ट्रेन यात्रा की सुविधा मिलेगी। हर सांसद किसी न किसी संसदीय समिति का सदस्य होगा, जिसकी बैठकों के बहाने उसे देश भ्रमण का मौका मिलेगा। एक सांसद के नाते मिलने वाली तमाम सुविधाओं का लाभ उठाने के अलावा इनकी देश या समाज के निर्माण में क्या भूमिका होगी?
सांसद काकाम कानून बनाने के लिए होता है लेकिन क्या सचमुच कोई सांसद कानून बनाने में भूमिका निभाता है? अपवाद के लिए भी एक मिसाल नहीं दी जा सकती है, जिसमें किसी सांसद ने पहल करके कोई कानून बनवाया हो। संसद सत्र के दौरान सप्ताह में एक दिन प्राइवेट मेंबर बिल के लिए मुकर्रर किया गया है, जिस दिन किसी पार्टी के सांसद अपनी समझ और देश-समाज-नागरिकों की जरूरतों के मुताबिक किसी कानून का मसौदा सदन में पेश करता है। कई सांसदों ने प्राइवेट मेंबर बिल के तौर पर बेहद जरूरी मुद्दों पर कानून का मसौदा पेश किया लेकिन ऐसा कोई बिल आगे नहीं बढ़ पाता है। संसद की मंजूरी से कानून सिर्फ उन्हीं विधेयकों पर बनता है, जिन्हें सरकार पेश करती है। सरकार भी जो बिल बनाती है उसमें भी कुछ चुनिंदा अधिकारियों और चुनिंदा मंत्रियों की ही भूमिका होती है। इस बात की भी कोई मिसाल नहीं है कि किसी सरकार ने अपने सांसदों से किसी विधेयक के मसौदे पर चर्चा की हो। सासंदों को किसी विधेयक के बारे में तभी पता चलता है, जब उसे सदन में पेश किया जाता है। विधेयक पेश होने के बाद भी सांसदों की कोई खास भूमिका नहीं होती है।
सत्तारूढ़ दल अपने कुछ सांसदों को उस बिल के समर्थन में बोलने के लिए तैयार करके रखता है। आमतौर पर कुछ चुनिंदा सांसद ही होते हैं, जो लगभग हर बार सरकारी बिल के समर्थन में बोलते हैं। सत्तारूढ़ दल के बाकी सांसदों का काम सिर्फ यह होता है कि जब बिल पास करने के लिए स्पीकर हां या ना पूछें तो वह हां में जवाब दे और जरूरत पड़ने पर हाथ उठाए। इसके अलावा उसकी कोई भूमिका नहीं होती है। दशकों से संसदीय राजनीति कवर करने के अपने अनुभव से मैं कह सकता हूं कि अपवाद के लिए भी सत्तारूढ़ दल के किसी सांसद ने किसी विधेयक पर चर्चा के दौरान सार्थक हस्तक्षेप करते हुए बिल में बदलाव नहीं कराया है। बिल चाहे जैसा भी हो लेकिन सत्तारूढ़ दल का कोई भी सांसद उस पर अपनी निजी समझदारी से नहीं बोलता है। वह अनिवार्य रूप से बिल का समर्थन करता है। वह उस बिल में न एक शब्द जोड़ सकता है और न घटा सकता है। भले बिल कितना ही खराब क्यों न हो और बाद में उसे वापस ही क्यों न लेना पड़े। कृषि कानून इसकी मिसाल हैं। सत्ता पक्ष के सारे सांसदों ने हाथ उठा इसे पास कराया था और जब बिल वापस हुआ तब भी उन्होंने हाथ उठा कर इसकी वापसी का बिल पास कराया। न उन्होंने पहले पूछा कि क्यों ऐसा बिल पास हो रहा है और न बाद में पूछा कि बिल क्यों वापस हो रहा है।
यहीं स्थिति विपक्ष के सांसदों की भी होती है। वे अनिवार्य रूप से सरकार के बिल का विरोध करते हैं लेकिन हाल के दिनों में शायद ही कभी हुआ हो कि विपक्ष के विरोध की वजह से बिल बदल गया है। किसी जमाने में होता था, जब संसद की प्रतिष्ठा थोड़ी बहुत बची थी। तब विपक्ष के विरोध के बाद विधेयकों को संसदीय समितियों में भेजा जाता है। कई बार साझा संसदीय समिति बनती थी। कई बार संयुक्त प्रवर समिति का गठन किया जाता था। इन समितियों की बैठक में पक्ष और विपक्ष के सांसद बिल के एक एक प्रावधान पर बारीकी से विचार करते थे और जरूरी बदलाव किया जाता था। लेकिन अब वह परंपरा भी लगभग समाप्त हो गई है। राज्यसभा को उच्च सदन कहा गया और उसके लिए चुने जाने की न्यूनतम उम्र पांच साल ज्यादा यानी 30 साल रखी गई। इसका मकसद यह था कि उच्च सदन में ज्यादा अनुभवी, ज्यादा पढ़े-लिखे और समझदार लोग बैठेंगे और चुने गए सदन व सरकार की मनमानियों पर अंकुश लगाएंगे। लेकिन पढ़े-लिखे, बौद्धिक, समझदार और अनुभवी नेताओं की बजाय राज्यसभा किसी भी तरह से पार्टी आलाकमान की कृपा हासिल कर लेने वालों की जगह बन गई है।
लोकसभा में सरकार के पास ऐसा प्रचंड बहुमत है कि उसे किसी भी बिल को पास कराने के लिए न विपक्ष के समर्थन की जरूरत है और न उसके विरोध की परवाह करते हुए विधेयक को संसदीय समिति में भेजने की जरूरत है। राज्यसभा में जरूर सरकार के पास बहुमत नहीं है तो वहां दूसरा रास्ता निकाल लिया गया है। इसी रास्ते से तीनों कृषि कानून पास किए गए थे। संसदीय नियम है कि अगर एक भी सांसद किसी विधेयक पर वोटिंग की मांग कर दे तो अनिवार्य रूप से वोटिंग करानी होगी। लेकिन कृषि कानूनों पर समूचा विपक्ष वोटिंग की मांग करता रहा और आसन पर बैठे उप सभापति हरिवंश ने वोटिंग नहीं कराई। उलटे विपक्ष के सांसदों को घसीट कर बाहर निकाल दिया गया और उनके ऊपर ही हंगामा करने का आरोप भी लगाया गया। उसके बाद राज्यसभा में यह नियम बन गया। सामान्य बीमा कंपनियों के विनिवेश का विधेयक भी इसी तरीके से पास कराया गया। सोचें, ऐसी स्थिति में तमाम जतन करके अगर कोई राज्यसभा में चला भी जाता है तो उसका क्या मतलब होगा? उसे निजी तौर पर कुछ सुविधाएं उपलब्ध होंगी और उसका परिवार पीढ़ियों तक कहता रहेगा कि उसके पूर्वज सांसद थे, इसके अलावा उसके सांसद होने का कोई और मतलब नहीं है।