जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी का सबसे बड़ा स्वास्थ्य खतरा

विश्व स्वास्थ्य संगठन चेतावनी दे चुका है कि जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी का सबसे बड़ा स्वास्थ्य खतरा है। विशेष रूप से निम्न आय वाले देशों में जहां संसाधनों की कमी है, वहाँ इसका प्रभाव विनाशकारी रूप ले सकता है।बढ़ता तापमान केवल सामाजिक संरचना को ही नहीं, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित कर रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव बढ़ रहा है, उत्पादकता घट रही है, और गर्मी में काम करने को विवश श्रमिक वर्ग सबसे अधिक प्रभावित हो रहा है। खेती, पर्यटन और निर्माण जैसे लगभग सभी क्षेत्र क्षेत्र इस संकट की चपेट में हैं।

धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है और इसके दुष्परिणाम अब केवल मौसम की मार तक सीमित नहीं रह गए हैं। यह संकट अब मानव मनोविज्ञान, सामाजिक ताने-बाने और वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी अंदर तक प्रभावित करने लगा है। पहले यह माना जाता था कि जलवायु परिवर्तन मुख्यतः पर्यावरणीय समस्या है, लेकिन अब यह सिद्ध हो रहा है कि यह एक मानवीय संकट में बदल चुका है।

वर्ष 2020 में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि जब तापमान सामान्य से अधिक होता है तो आत्महत्या, सड़क दुर्घटनाएं, सामाजिक हिंसा और जल में डूबने की घटनाएं बढ़ जाती हैं। यह सिर्फ आकस्मिक घटनाएं नहीं, बल्कि उस गहरे मनोवैज्ञानिक परिवर्तन का संकेत हैं जो गर्मी के कारण हमारे शरीर और मस्तिष्क में पैदा होता है। अधिक तापमान के दौरान हमारे शरीर में तनावजनक हार्मोन्स का स्त्राव बढ़ जाता है, जिससे व्यक्ति की आक्रामकता और हिंसात्मक प्रवृत्ति तीव्र हो जाती है।

अमेरिका में यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के एक महत्वपूर्ण अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया कि वर्ष 2015 से 2020 के बीच बंदूक हिंसा से प्रभावित 100 शहरों में 1,16,511 हिंसक घटनाएं दर्ज की गईं। इनमें से लगभग 80,000 घटनाएं गर्मी के मौसम में हुईं, जब तापमान 29 से 32 डिग्री सेल्सियस के बीच था। यह आंकड़े संकेत करते हैं कि बढ़ता तापमान केवल शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता के लिए भी खतरा बनता जा रहा है।

हिंसा केवल सड़कों पर ही नहीं, बल्कि हमारे घरों, सोशल मीडिया और सार्वजनिक संवादों में भी देखी जा सकती है। आज की दुनिया में हम पहले से अधिक उग्र भाषण सुनते हैं, आक्रामक नेताओं को सिर आंखों पर बिठाते हैं, और भीड़ की मानसिकता से न्याय लेने की प्रवृत्ति विकसित हो रही है। यह एक चिंताजनक संकेत है कि हमारा समाज एक बार फिर आदिम हिंसात्मक प्रवृत्तियों की ओर लौट रहा है।

ग्रीनलैंड का उदाहरण इस संकट को और अधिक गहराई से समझाता है। यहां की अधिकांश आबादी शिकारी है, जो समुद्र पर जमी बर्फ पर जाकर शिकार करती है। लेकिन अब तापमान के कारण या तो बर्फ जमती नहीं या बहुत पतली होती है। इस कारण भोजन की कमी हो रही है, और लोग अपने पालतू कुत्तों को भी मारने लगे हैं क्योंकि उन्हें भोजन नहीं दे पा रहे। यह दृश्य केवल आर्थिक संकट नहीं, बल्कि भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक असहायता का परिचायक है।यूनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन और अन्य संस्थानों द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, ग्रीनलैंड के 92% लोग मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और 76% लोग इसके दुष्परिणाम झेल रहे हैं।

ग्रीनलैंड जैसी स्थिति हिमालयी क्षेत्रों में भी बनती जा रही है। बर्फ पिघलने के कारण वहां के छोटे-छोटे जल स्रोत समाप्त हो रहे हैं, पारंपरिक खेती संकट में है, और भविष्य में यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो वहां के निवासी भी मानसिक और सामाजिक रूप से अस्थिर हो सकते हैं। यह एक ऐसी मानवीय त्रासदी होगी, जो धीरे-धीरे, लेकिन गंभीरता से सामने आ रही है।

बढ़ते तापमान का प्रभाव अब केवल पर्यावरणीय विषय नहीं रहा, यह अब राजनीतिक, सामाजिक और मानवीय मुद्दा बन गया है। यह न केवल हमारे शरीर को झुलसा रहा है, बल्कि हमारी चेतना को भी उग्र और असहिष्णु बना रहा है। जरूरत है कि सरकारें, संस्थाएं और आम जनता इस संकट को समझें और मिलकर ठोस कदम उठाएं। टिकाऊ विकास, पर्यावरणीय शिक्षा, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का सशक्तीकरण और जलवायु-अनुकूल नीतियां बनाकर ही इस संकट का समाधान किया जा सकता है।

यदि हमने अब भी चेतना नहीं दिखाई, तो यह केवल पृथ्वी की गर्मी नहीं होगी जो हमें जलाएगी, बल्कि हमारी अपनी हिंसा, असंवेदनशीलता और मनोवैज्ञानिक संकट ही इस सभ्यता की बुनियाद को डगमगा देंगे।

डॉ गोविन्द पारीक
अतिरिक्त निदेशक जनसंपर्क सेनि

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