अरुण, यह क्षरता देश हमारा!

सत्य वोट से तय नहीं होता। यह कुरू-सभा में अकेले विदुर से लेकर गाँधी-मजमे के सामने अकेले टैगोर तक प्रमाणित है। तब, कैसा देश है हमारा? उत्तर के लिए कुछ सर्वविदित तथ्यों पर विचार करें। यह ऐसा देश है, जहाँ…..

भारत विश्व-गुरू बन रहा है, या विश्व-मजदूर जो अपना पेट पालने और चमड़ी बचाने के सिवा कोई विशेष काम नहीं जानता? यह परखने का कोई पैमाना तो होगा। लेकिन इस से बच कर हर बात शोर-शराबे, लोभ-धमकी, मान-अपमान, तैश-तुर्शी और ‘संख्या’ बल‌ से सही ठहराने की जिद आज व्यापक है।

पर सत्य वोट से तय नहीं होता। यह कुरू-सभा में अकेले विदुर से लेकर गाँधी-मजमे के सामने अकेले टैगोर तक प्रमाणित है। तब, कैसा देश है हमारा? उत्तर के लिए कुछ सर्वविदित तथ्यों पर विचार करें।
यह ऐसा देश है, जहाँ

1- कानून-निर्माता प्रायः ऐसे लोग होते हैं जो तकनीकी भाषा तो दूर, स्तरीय सामान्य साहित्य भी समझने में अक्षम हैं। अर्थात् सर्वोच्च राष्ट्रीय सभा-समिति के लिए भी जानकारी या ज्ञान होना आवश्यक नहीं समझा जाता।

2- फलत: आम शिक्षा भी उपेक्षित है। शिक्षा व शिक्षकों का कोई स्तर रखना जरूरी नहीं समझा जाता। कागजी संतुष्टि काफी है।

3- विश्वविद्यालयों में ऐसे प्राध्यापक हैं जिन्होंने वे मूल पुस्तकें देखी तक नहीं होती, जिन पर छात्रों को लेक्चर देते साल-दर-साल निष्कपट भाव से बिताते हैं।

4- केंद्रीय विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षा में शून्य अंक पाने वाले को भी उच्चतम डिग्री कक्षा में प्रवेश दिया जाता है। जिस का अगला कदम उन्हें विश्वविद्यालय प्रोफेसर बनाना है, और भी जोरदार दावे से!

5- देश भर में नौवीं-दसवीं के असंख्य बच्चे दूसरी-तीसरी कक्षा की किताब भी, मातृभाषा में भी पढ़ने में असमर्थ हैं।

6- सामान्य विश्वविद्यालयों की एम.ए. फाइनल की कॉपियों में अपनी भाषा में भी कोई सुसंगत शुद्ध पाराग्राफ लिखा मुश्किल से मिलता है।

7-. शिक्षितों की भारी बेरोजगारी के बावजूद भाषा, गणित, और साइंस के शिक्षक राजकीय स्कूलों के लिए भी नहीं मिल रहे। वह भी ऐसे प्रांत, बिहार, में जहाँ शिक्षा-चेतना अधिक है।

8- राजकीय विद्यालयों में हजारों अस्थाई शिक्षकों की हैसियत व वेतन, उन्हीं विद्यालयों में स्थाई निम्न कर्मचारियों से नीची होती है।

9-. अनगिनत राजकीय स्कूलों में अनगिनत स्थाई शिक्षक पढ़ाने नहीं जाते। किसी को भेज देते हैं, और स्वयं कोई अतिरिक्त धनोपार्जन या आराम से बैठे समय बिताते हैं। शासक-प्रशासक यह यथावत चलने देते हैं। बच्चों की शिक्षा, पाठ का क्या हो रहा? यह देखने की स्थिति में कोई नहीं रह गया है।

10- देश और विश्व की महान पुस्तकें शिक्षा से प्रायः बाहर हैं, जबकि रोज बदली जा सकने वाली जैसी-तैसी संहिता ‘धर्मग्रंथ’ कह कर आसमान चढ़ायी जाती है।

11- स्वतंत्रता के बाद भाषा, साहित्य, कला निरंतर क्षीण हो रही है। देश की किसी भाषा, अंग्रेजी समेत, में एक भी साहित्य-पत्रिका नहीं जिसे देश भर के शिक्षित भी जानते हों। जबकि तब से उच्च शिक्षितों की संख्या में लगभग दस हजार प्रतिशत वृद्धि हुई है।

12- इस विचित्रता पर देश के कर्णधारों ने कभी औपचारिक सभा-समिति में विचार तक नहीं किया। पर वे भक्तों को निरंतर आई.के.एस. भजते रहने की मुस्तैद व्यवस्था करते हैं।

13- ऊपर से नीचे तक अपने मुँह मियाँ मिट्ठुओं की‌ संख्या विश्व में सब से बड़ी है। लगभग सारी बौद्धिकता परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, और दलबंदी ग्रस्त है। विश्वविद्यालय से मीडिया तक यही दृश्य है।

14- जिन्होंने कभी एक मौलिक लेख तक नहीं लिखा जिसे कोई नोट भी करने लायक समझे, वे ‘चिंतक’, ‘राष्ट्रऋषि’, आदि कह कर जबरन थोपे जाते हैं। जिस झूठे प्रचार में देश का धन बेतहाशा बर्बाद करने वाले अगले ‘ऋषि’ बनते हैं।

15- इक्के-दुक्के सच्चे कवि, लेखक, विद्वान होते भी हैं, तो वे उपेक्षित, भूखे रहते, धोखे खाते, अपमानित होते किसी तरह अपना कर्तव्य व जीवन-यापन करते हैं।

16- आजीविका के अनेक क्षेत्रों में मामूली योग्य युवा भी विदेश जाना चाहते हैं, और जाकर नहीं लौटते।

17- शरीर दिमाग सुन्न हो जाने पर भी नेता पद से नहीं हटते, न उन्हें हटाया जाता है। क्योंकि सभी अपने लिए वही चाहते हैं।

18- बिना उपार्जन किए, दूसरों के श्रम पर जीते, कुर्सी साधते, देश-विदेश घूमते, लफ्फाजी करने वाले प्रोफेशनल परजीवी ‘समाज-सेवक’ कहे जाते हैं।

19- बड़े-बड़े नेताओं को अपने वादों, घोषणाओं के लिए उत्तरदायी नहीं बनना पड़ता। वे पिछले दावे भुला नित नये दावे करते आजन्म किसी न किसी पद पर मजे से रह सकते हैं।

20- ऐसे-ऐसे बड़े न्यायाधीश होते हैं जिन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में अदालत में कभी मुँह नहीं खोला, न कभी वहाँ कोई जजमेंट लिखा। लेकिन उन्हें ही आगे और संवैधानिक पद दिये जाते हैं। ऊपर से विशिष्ट राष्ट्रीय सम्मान भी!

21- असंख्य महत्वपूर्ण पदों के लिए उस कार्य की योग्यता सब से उपेक्षित तत्व है। किसी का दल, गुट, जाति, मजहब, मतवाद, आदि ही चयन का पहला और हमेशा एकमात्र तत्व होता है।

22- हवा का रूख देख रोज रंग बदलने वाले देश के नीतिकार और संचालक बनते हैं।

23- अपने ही संगठन ‘परिवार’ को भी नित झूठी बातों से भरमाने वाले देश के मार्गदर्शक कहलाते हैं।

24- राज्य में शराब प्रतिबंधित हो जाने के बाद भी घर-घर उपलब्ध हो सकने का जगजाहिर चलन ‘सुशासन’ कहलाता है।

25- एक भ्रष्टाचारी राष्ट्रीय सम्मान से विभूषित होता है, यदि अपना पार्टी-संगी हो। पर वही भ्रष्टाचार करने वाला अन्य जेल में झूलता है, यदि पार्टी-संगी न बने।

26- राजनीतिक दलों द्वारा अरबों-खरबों रूपयों के देशी-विदेशी चंदों के लेन-देन का कोई विवरण न देने, कोई ऑडिट, हिसाब कहीं भी न होने को पारदर्शिता कहा जाता है।

27- दल-बदल विरोधी नियम बना कर सर्वोच्च सभा में भी अभिव्यक्ति व कार्य-स्वतंत्रता छीन ली गई है। जबकि वह छीनने वाले सुप्रीमो ही जम कर दल-बदल करा सकते हैं।

28- धर्म व देश के स्वघोषित शत्रुओं को भी दंड से बचाने के लिए बड़े-बड़े बौद्धिक लग पड़ते हैं। आधी रात में न्यायाधीशों को जगाकर निहोरते हैं। जबकि मामूली अपराधों में झूठे-सच्चे आरोपियों के मामले सालों-साल लंबित रहते हैं। जिस की परवाह देश के बौद्धिक, राजनीतिक समूहों संगठनों को नहीं होती।

29- ऐसे राष्ट्रीय नेता होते हैं जो पिछले कर्णधारों के जिन विचारों, कार्यों, और तरीकों की निन्दा करते हैं, अपनी बारी में ठीक वही सब बढ़-चढ़ कर करते हैं। ऊपर से अपनी पीठ ठोकते हैं। जिन्हें उन के अनुयायी ‘कर्मयोगी’ कहते हैं।

30- सब से बड़े संगठन अपने धर्म-समाज के जानी दुश्मनों की लल्लो-चप्पो करते, उन के अड्डे, ट्रेनिंग सेंटर बनवाते हैं। इस कारनामे पर कहीं मगन होते हैं, तो कहीं छिपाते हैं। उन के अनुयायी यह देख कभी चकित, कभी संभ्रमित होते हैं।

31- किसी के सत्तासीन रहते उस की तमाम गलतियों, मूर्खता, फूहड़ता पर सब चुप रहते हैं। जबकि दशकों, सदियों पहले मर चुके शासकों की लानत-मलामत करने वाले ऊपर से नीचे तक भरे पड़े हैं। मृतकों को गालियाँ देकर वे विजेता जैसे झूमते हैं।

32- सभी अंग के सत्तावान केवल स्वधर्मियों को पीटते-बाँधते, फींचते-फटकारते हैं। लेकिन खतरनाक विधर्मियों पर चुप्पी रखते हैं, चाहे वे कितने भी क्रूर घृणित कर्म क्यों न करें।

उपर्युक्त कुछ मोटी बातें साधारण अवलोकनकर्ता को भी दिखती हैं। यह सब ऐतिहासिक विधि से विश्लेषण करने पर एक आडंबर से दूसरे, और दूसरे तमाशे से तीसरे तक बहलावे में जीते हुए, आत्मप्रवंचना, दम-दिलासे के नशे में क्षरते-छीजते समाज का जीवन लगता है।

ऐसे अवलोकन को कुछ लोग नकारात्मक दृष्टि कहते हैं। लेकिन तब यथार्थ दृष्टि क्या है?

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