हिंसक समाज अच्छा नहीं होता

संसद भवन की छत पर साढ़े छह मीटर ऊंचा और साढ़े नौ टन का अशोक स्तंभ लगाया गया है। इस अशोक स्तंभ की डिजाइन को लेकर विवाद छिड़ा है। विपक्ष का कहना है कि सारनाथ के मूल अशोक स्तंभ के मुकाबले संसद की छत पर लगाए गए सिंहों को आक्रामक और खूंखार बना दिया गया है। सारनाथ के सिंह अपनी भव्यता के बावजूद शांत और सौम्य दिखते हैं। वे शक्ति का प्रतीक हैं, शिकारी या हमलावर का नहीं। इसके उलट संसद भवन की छत पर लगाई गई विशाल मूर्ति के सिंह हिंसक और हमलावर दिख रहे हैं। इस मूर्ति को डिजाइन करने वाले कलाकार और सरकार दोनों इस आलोचना को खारिज कर रहे हैं। उनका कहना है कि मूर्ति का आकार बहुत बड़ा है और इसे 33 मीटर की ऊंचाई पर लगाया गया है, जिसकी वजह से ऐसा प्रतीत हो रहा है। दूसरी ओर भाजपा के नेता इसे धारणा पर आधारित विवाद बता रहे हैं। उनका कहना है कि विपक्ष को अशोक स्तंभ से ज्यादा इस बात का विरोध है कि वहां पूजा क्यों हुई। इस विवाद में एक तीसरा पक्ष भी है, जो मान रहा है कि पारंपरिक प्रतीक से अलग इस मूर्ति के सिंह सचमुच आक्रामक हैं और ऐसा होना अच्छी बात है। इन तीनों में से कोई यह सवाल नहीं उठा रहा है कि मूल अशोक स्तंभ में सिंहों की आकृति कमल के ऊपर है और उस कमल को कैसे व कब हटा दिया गया?

बहरहाल, सबसे पहले तो इस बुनियादी सिद्धांत को समझने की जरूरत है कि किसी भी राष्ट्रीय प्रतीक के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है और न उसका मनमाना इस्तेमाल हो सकता है। चाहे राष्ट्रगान हो, राष्ट्रीय झंडा हो या कोई और राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह हो, उसे जिस रूप में स्वीकार किया गया है उसी रूप में हर जगह प्रदर्शित करना होगा। राष्ट्रीय प्रतीक पवित्र होते हैं और उनसे छेड़छाड़ करना उनकी पवित्रता भंग करने की तरह है। मसलन राष्ट्रीय झंडे में तीन रंग हैं और बीच में 24 तीलियों वाला चक्र है तो उसे वैसे ही रखना होगा। झंडा बड़ा करना हो या बहुत ऊंचाई पर रखना हो तो चक्र में 24 की बजाय 30 तीलियां नहीं की जा सकती हैं और न उनका रंग बदला जा सकता है। हरा रंग नीचे होता है तो वह नीचे ही रहेगा उसे उलटा लगाने पर मुकदमा हो जाता है।

राष्ट्रगान 52 सेकंड में गाया जाना है तो उसे उतनी ही देर में गाया जाएगा। बहुत से लोग गा रहे हैं या कोई बहुत पहुंचा हुआ संगीतकार उसका संगीत बना रहा है तो वह उसे एक मिनट का नहीं कर सकता है। राष्ट्रीय प्रतीकों में बदलाव का समर्थन करने वालों को पता नहीं ध्यान है या नहीं कि हिंदी फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन ने एक बार 52 सेकंड से ज्यादा समय में राष्ट्रगान गाया था तो उनके ऊपर मुकदमा दर्ज हो गया था। इसी सरकार के कार्यकाल में मार्च 2016 में दिल्ली में मुकदमा दर्ज हुआ था, जिसमें कहा गया था कि उन्होंने राष्ट्रगान एक मिनट 10 सेकंड में गाया है और सिंध की जगह सिंधु शब्द का उच्चारण किया।

इसी तरह अगर मूल अशोक स्तंभ के सिंह एक खास आकृति वाले हैं और एक खास भंगिमा लिए हुए हैं तो उन्हें वैसा ही रहने देना चाहिए। उन्हें आक्रामक, हिंसक या हमलावर बनाने से भारत और भारतीय नहीं बदल जाएंगे। न भारत की नीतियां और सिद्धांत बदलेंगे। न भारत का इतिहास बदल जाएगा। ध्यान रहे ‘मेक इन इंडिया’ का प्रतीक भी शेर बनाया गया है लेकिन उससे भारत का विनिर्माण सेक्टर चीन से मुकाबला करने वाला नहीं हो गया। उलटे उसके बाद से जीडीपी में विनिर्माण सेक्टर की हिस्सेदारी 16 से घट कर 13 फीसदी रह गई है।

खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कहा है कि इतिहास गवाह है कि भारत ने कभी किसी देश पर हमला नहीं किया। अगर भारत इतिहास में हमलावर नहीं रहा है तो अब उसके प्रतीकों को हमलावर और हिंसक बनाने का क्या मतलब है? वैसे भी सिंह अपने आप ही शक्ति और गर्व का प्रतीक होता है। जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि ‘शेर है तो दहाड़ेगा ही’ या ‘शेर के दांत हैं तो दिखेंगे ही’ उन्हें समझना चाहिए कि शेर को अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए हर समय दहाड़ते रहने की जरूरत नहीं होती है। इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि अशोक स्तंभ में भले सिंह बने हों परंतु आकार और आबादी की विशालता की वजह से भारत का प्रतीक हाथी है। चीन के ड्रैगन के मुकाबले भारत को हाथी की तरह ही प्रस्तुत किया जाता है। वह शक्ति, गरिमा और ऐश्वर्य तीनों का प्रतीक है।

अफसोस की बात है कि भारत में इन दिनों हर राष्ट्रीय या धार्मिक प्रतीक को उग्र, आक्रामक और हिंसक दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। यह प्रयास अनायास नहीं है, बल्कि सोची समझी योजना के तहत ऐसा किया जा रहा है। अयोध्या के मंदिर आंदोलन की शुरुआत में विश्व हिंदू परिषद ने धनुष बाण उठाए भगवान राम की जिस तस्वीर को प्रतीक बनाया वह शुरुआत थी। सोचें, समूचे रामचरितमानस में भगवान राम के क्रोधित होने का सिर्फ एक छोटा सा प्रसंग है, जब वे लंका जाने के लिए तीन दिन तक समुद्र से रास्ता मांगते हुए उसके किनारे बैठे रहते हैं। समुद्र पर उनके अनुनय विनय का कोई असर नहीं होता है तो वे धनुष बाण उठाते हैं। तुलसीदास लिखते हैं, ‘विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीत, बोले राम सकोप तक भय बिनु होहीं न प्रीत’। इसके अलावा किसी प्रसंग में राम के क्रोधित होने का जिक्र नहीं है। यहां तक की सीता के अपहरण के बाद भी राम दुखी होते हैं, क्रोधित नहीं। इसके बावजूद हिंदू मानस में भगवान राम की क्षणिक गुस्से वाली छवि को स्थायी तौर पर बैठाया जा रहा है। इसी तरह पिछले कुछ समय से हनुमान जी की भी ऐसी तस्वीरें सोशल मीडिया में प्रसारित की जा रही हैं, जिसमें वे गुस्से की भाव-भंगिमा लिए हुए हैं। सुदर्शन चक्र उठाए भगवान श्रीकृष्ण की तस्वीरें तो स्थायी हो गई हैं।

भारत में कभी भी भगवानों की छवि ऐसी नहीं रही है। भारत में भगवानों की तस्वीरें और उनसे जुड़े प्रतीकों को हमेशा कल्याणकारी स्वरूप में प्रस्तुत किया जाता है। वे बदला लेने या सजा देने वाले नहीं होते हैं। वे लोक कल्याण करने वाले होते हैं। उनका ‘सजा’ देना भी न्याय माना जाता है, जिस पर आस्थावान लोग आंख बंद करके भरोसा करते हैं। सवाल है किस सोच में तमाम धार्मिक व राष्ट्रीय प्रतीकों को उग्र, आक्रामक या हिंसक रूप दिया जा रहा है? ध्यान रहे समाज वैसे ही हिंसक होता जा रहा है। फिल्में, कॉमिक्स, वीडियो व मोबाइल गेम्स और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम समाज को हिंसा और यौन कुंठा से भर रहे हैं। ऐसे समय में संस्थागत और सुनियोजित रूप से समाज को हिंसक बनाने का प्रयास देश और समाज के लिए बहुत नुकसानदेह हो सकता है।

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