बीमा कंपनियों को बेलगाम बनाने वाला फैसला
सुप्रीम कोर्ट के दो माननीय जजों की बेंच ने तीन जुलाई को सड़क दुर्घटना में बीमा भुगतान को लेकर एक अहम फैसला सुनाया। दोनों विद्वान जजों ने कहा कि अगर किसी व्यक्ति की मृत्यु गाड़ी चलाते समय अपनी गलती से या लापरवाही से हुई है तो उसका परिवार बीमा की राशि का दावा करने का हकदार नहीं है। इस मामले में पहले कर्नाटक हाई कोर्ट ने यही फैसला सुनाया था, जिसके खिलाफ परिवार सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। कर्नाटक हाई कोर्ट ने पिछले साल 23 नवंबर को अपने फैसले में कहा था कि पुलिस के आरोपपत्र में कहा गया है कि हादसा गाड़ी चला रहे व्यक्ति की लापरवाही और तेज रफ्तार से गाड़ी चलाने की वजह से हुई थी, इसलिए बीमा कंपनी उसके परिवार को मुआवजा देने के लिए बाध्य नहीं है।
इतना ही नहीं हाई कोर्ट के फैसले में यह भी कहा गया था कि, ‘जब मृतक के कानूनी प्रतिनिधि दावा करते हैं, तो उन्हें यह साबित करना होगा कि मृतक खुद अपनी लापरवाही से गाड़ी चलाने के कारण दुर्घटना के लिए जिम्मेदार नहीं था। उन्हें यह भी साबित करना होगा कि मृतक पॉलिसी के अंतर्गत आता है, ताकि बीमा कंपनी कानूनी उत्तराधिकारियों को भुगतान करने के लिए उत्तरदायी हो’। इसका मतलब है कि अगर किसी बीमा कंपनी ने कह दिया कि बीमित व्यक्ति की मौत उसकी अपनी गलती या लापरवाही से हुई है, तो उसे यह साबित करने की जरुरत नहीं होगी। मौत अपनी गलती या लापरवाही से नहीं हुई है यह साबित करने का काम परिवार को करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के इस फैसले को सही ठहराया और परिवार के दावे को खारिज कर दिया।
यह बहुत बड़ा और अहम फैसला है। ध्यान रहे भारत में पहले ही बीमा कंपनियों का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है। खास कर जनरल इंश्योरेस, जिसमें स्वास्थ्य, सड़क दुर्घटना, वाहन, मकान और कीमती वस्तुओं का बीमा शामिल है, उनकी कंपनियों का रिकॉर्ड बहुत खराब है। स्वास्थ्य बीमा के मामले में तो कई निजी कंपनियां ऐसी हैं, जिनका बीमा क्लेम निपटाने का औसत 50 फीसदी के करीब है। यानी वे आधे दावे तो कोई न कोई कमी निकाल कर खारिज कर देती हैं। स्वास्थ्य बीमा के मामले में कंपनियों का सामान्य औसत यह है कि वे अगर एक सौ रुपए का प्रीमियम लेती हैं तो दावा करने पर अधिकतम भुगतान 80 रुपए का करती हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बीमा कंपनियों के हाथ में एक बड़ा हथियार थमा देता है। वे इस फैसले के आधार पर जीवन बीमा से लेकर सामान्य बीमा तक के दावों में बीमित व्यक्ति की कमी निकाल कर उसके परिजनों के दावे को खारिज करने की कोशिश कर सकती हैं। अगर बीमित व्यक्ति के परिजनों पर यह सबूत जुटाने का भार डाल दिया जाता है कि वे साबित करें कि बीमित व्यक्ति की मौत उसकी अपनी लापरवाही या उसकी अपनी गलती से नहीं हुई है तो यह और बड़ा अन्याय है। सोच कर देखें कि सर्वोच्च अदालत के इस फैसले का किस तरह से और कितना दुरुपयोग हो सकता है!
कर्नाटक का मामला सड़क दुर्घटना का था, जिसमें रवीशा नाम के व्यक्ति को लापरवाही से और तेज रफ्तार गाड़ी चलाने का दोषी बताया गया और उस आधार पर उनके परिवार को बीमा कंपनी ने मुआवजा देने से इनकार कर दिया। बीमा कंपनियां किसी भी किस्म के दावे को खारिज करने के लिए इस तरह के उपाय आजमा सकती हैं। मिसाल के तौर पर किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य बीमा है और वह बीमार पड़ जाता है तो बीमा कंपनियां दावा कर सकती हैं कि वह अपनी गलती या लापरवाही से बीमार पड़ा है तो क्या इस आधार पर बीमा की रकम का दावा खारिज किया जा सकता है? आमतौर पर स्वास्थ्य बीमा करने वाली कंपनियां ऐसा करती हैं। तभी कई निजी कंपनियों का स्वास्थ्य बीमा के दावों का भुगतान करने का औसत 50 से 60 फीसदी का है। ऊपर से अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है, जिसका दुरुपयोग बीमा कंपनियां कर सकती हैं।
जीवन बीमा से लेकर स्वास्थ्य बीमा तक कंपनियां बीमित व्यक्तियों का दावा खारिज करने के बहाने खोजती रहती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है वह बीमा कंपनियों का पसंदीदा बहाना रहा है। वे हर वाहन दुर्घटना में बीमित चालक के ऊपर लापरवाही से गाड़ी चलाने या गलती करने के आरोप लगाती हैं। इसी तरह स्वास्थ्य बीमा के मामले में भी बीमा दस्तावेजों में छोटे छोटे अक्षरों में छपी शर्तों के जरिए क्लेम अटकाया जाता है। बीमा कराते समय कंपनियों के एजेंट कई ऐसी चीजें समझाते हैं, जो उसमें शामिल नहीं होती हैं। बीमा कराने वाले व्यक्ति आमतौर पर एजेंट की बातों पर भरोसा करते हैं। वे बेहद बारीक अक्षरों जटिल कानूनी भाषा में छपी लंबी चौड़ी शर्तें नहीं पढ़ते हैं। बाद में उनको इसका नुकसान होता है। इसी तरह कंपनियों के एजेंट कई बीमारियों या आदतों की अनदेखी करके बीमा कर देते हैं लेकिन बाद में कंपनियां आरोप लगाती हैं कि बीमित व्यक्ति ने जानकारी छिपाई और इस आधार पर दावा खारिज कर दिया जाता है। इसी तरह जीवन बीमा में भी बीमित व्यक्ति की मृत्यु के बाद जांच पड़ताल के नाम पर देरी की जाती है या दावा खारिज करने के उपाय खोजे जाते हैं।
ध्यान रहे भारत में बीमा कराने वाली आबादी बहुत कम है। कोरोना के बाद भी इस मामले में कोई बदलाव नहीं आया। बीमा कंपनियों की नियामक एजेंसी इरेडा के तत्कालीन चेयरमैन देवाशीष पांडा ने 2023 में नेशनल इंश्योरेंस एकेडमी की एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि भारत में 95 फीसदी लोगों के पास बीमा कवर नहीं है। मध्य वर्ग के 84 फीसदी लोगों के पास बीमा नहीं है। देश के तटीय क्षेत्रों और दूसरे व तीसरे श्रेणी के शहरों में 77 फीसदी लोगों ने बीमा नहीं कराया है। देश की 73 फीसदी आबादी के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं है। यह स्थिति तब है, जब भारत में सामान्य बीमा की 34 और जीवन बीमा की 24 कंपनियां काम कर रही हैं। इतनी कंपनियों के होने के बावजूद बीमा कराने वालों की संख्या बहुत कम है तो कई कारणों में से एक कारण बीमा कंपनियों का व्यवहार और दावों के निपटान में देरी या क्लेम नहीं सेटल किया जाना भी है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अगर बीमा कंपनियां बेलगाम हो जाएं और हर क्लेम में कमी निकालने लगें तो क्या होगा? कर्नाटक के मामले में पुलिस रिपोर्ट थी कि गाड़ी चला रहा व्यक्ति लापरवाही से गाड़ी चला रहा था और हादसे में उसकी गलती थी। अगर स्वास्थ्य या जीवन बीमा के मामले में इसी तरह की रिपोर्ट डॉक्टर या अस्पताल दे दे और बीमित व्यक्ति की गलती बता दे तो क्या होगा? इस सवाल का जवाब यह सोच कर देना होगा कि महाशक्तिशाली बीमा कंपनियों के लिए भारत में पुलिस या किसी अस्पताल से मनमाफिक रिपोर्ट लेना कितना आसान होता है! कंपनियां बड़ी आसानी से पुलिस या अस्पताल से रिपोर्ट ले सकती हैं कि हादसा, बीमारी या मृत्यु बीमित व्यक्ति की गलती या उसकी लापरवाही से हुई है। उसके बाद बीमित व्यक्ति के परिवार की यह जिम्मेदारी हो जाएगी कि वे इस रिपोर्ट को गलत साबित करें। ऐसे में कितने लोग पुलिस, अस्पताल या बीमा कंपनी का मुकाबला कर पाएंगे? ऊपर से सुप्रीम कोर्ट के फैसले की रोशनी में अदालतों से भी कोई राहत नहीं मिल पाएगी।