अब कुछ नया सोचिए
ट्रेड यूनियनें गंभीरता से सोचें, तो उन्हें अहसास होगा कि नव-उदारवादी आम सहमति में सेंध लगाने में उन्हें अब तक कोई कामयाबी नहीं मिली है। तो फिर ऐसे अप्रभावी विरोध का सिलसिला जारी रखने का क्या तर्क है?
ट्रेड यूनियनों के भारत बंद का सामान्य असर रहा। सामान्य इस अर्थ में कि अब हर साल एक या दो बार होने वाले ऐसे विरोध आयोजनों का जैसा प्रभाव होता है, वैसा इस बार भी हुआ। कुछ राज्यों में परिवहन पर असर पड़ा, सार्वजनिक निगमों में हड़ताल जैसा माहौल बना, और जुलूस- प्रदर्शन निकाले गए। किसानों के संगठन- संयुक्त किसान मोर्चा ने कई स्थानों पर बंद के समर्थन में आयोजित कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। ट्रेड यूनियनों ने इस माध्यम से आम तौर पर नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों और खास तौर पर चार श्रमिक संहिताओं के प्रति अपना विरोध दर्ज कराया।
इसके बाद संभवतः कई महीनों के बाद ये संगठन फिर से अपना विरोध जताएंगे। यह क्रम कई दशक पुराना हो चुका है। इसलिए ट्रेड यूनियनों और उनके समर्थक संगठनों के लिए यह आत्म-निरीक्षण का विषय है कि इस रास्ते अब तक उन्होंने क्या हासिल किया है या आगे इससे वे क्या अपेक्षाएं रखते हैं? हकीकत यह है कि ट्रेड यूनियनों के विरोध के बावजूद नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां अपनी रफ्तार से आगे बढ़ी हैं। कुछेक अपवादों को छोड़ कर राजनीतिक दलों के बीच इन नीतियों पर आम सहमति है। ट्रेड यूनियनें गंभीरता से सोचें, तो उन्हें अहसास होगा कि इस आम सहमति में सेंध लगाने में उन्हें अब तक कोई कामयाबी नहीं मिली है। तो फिर ऐसे अप्रभावी विरोध का सिलसिला जारी रखने का क्या तर्क है?
दरअसल, विरोध का कौन तरीका प्रभावी होगा, यह काफी कुछ तरीका सिस्टम के स्वरूप से तय होता है। आज जबकि शासक वर्ग ने राजनीति को जातीय, भाषाई, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय पहचान के मुद्दों पर केंद्रित कर रखा है, वर्गीय प्रश्नों पर प्रतीकात्मक विरोध के जरिए शायद ही कोई असर छोड़ने की गुंजाइश बची है। ऐसा हो, इसके लिए अनिवार्य है कि पहले विमर्श को वर्गीय प्रश्नों की तरफ लाने का अभियान चलाया जाए और फिर उन प्रश्नों पर संघर्षों में निरंतरता लाई जाए। मगर जिस समय वामपंथी राजनीति भी पहचान के मुद्दों में पूरी तरह उलझी हुई है, ट्रेड यूनियनों के लिए ऐसा कर पाना आसान नहीं रह गया है। और उन्होंने ऐसा कोई प्रयास किया भी नहीं है।